दृष्टिहीनता और अपंगता ये शब्द सुनते ही अक्सर हमारे मन में असमंजस्ता और बेचैनी बढ़ जाती है। हम सभी को भगवान ने सुडौल शरीर दिया है तो भी हमको उनसे हज़ारों शिकायत रहती है और कहीं-ना-कहीं कुछ कमी निकालते रहते हैं। तो जरा गौर फरमाइए जो लोग इस संसार की खूबसूरती देख नहीं सकते उनका इस संसार में आने का क्या अर्थ है, जो लोग अपंग है और वे एक स्थान से दूसरे स्थान जाने के लिए असक्षम है, उन्हें क्या संसार के सारे सुख मिलते हैं??? जाहिर सी बात है इस बात को अगर हम दिल से सोंचें तो ये हमें झकझोर के रख देगी।
हमारा ये देश लोकतांत्रिक देश है और यहां सभी को आज़ादी है कि वे अपने मन योग्य कोई कार्य कर सकें। जैसे गरीब, बेबस, अनाथ, दृष्टिहीन और विकलांग लोगों की मदद करना। इसलिए यहां आपको ऐसे बहुत से सज्जन व्यक्ति मिलेंगे जो अपने व्यस्त जीवन से वक़्त निकालकर अपना वक़्त उन बेसहारा और अनाथ बच्चों को देते हैं।
इसी कड़ी में आज हम आपको एक ऐसे संस्थान और उनके संस्थापक के विषय में बताएंगे जिन्होंने निःस्वार्थ भाव से अपंग और दृष्टिहीन बच्चों को पूरी निष्ठाभाव से शिक्षित कर उन्हें अपने संस्थान में रखकर उन्हें कुशल बनाते हैं। ताकि उनके चेहरे पर खुशियां बिखेर सकें और उनके ज़िंदगी को एक बेहतर माहौल मिल सके।
वह संस्थान है दृष्टि सामाजिक संस्थान (Drishti Samajik Sansthan) जिसकी स्थापना 1990 में नीता बहादुर (Nita Bahadur) ने की। उन्होंने लगभग 400 कैसेट अपने आवाज में नेत्रहीन बच्चों के लिए तैयार किया था जिसमें नौवीं कक्षा से 12वीं कक्षा तक का पूरा सिलेबस था। ताकि उन दृष्टिहीन बच्चों को पढ़ाई में मदद मिल सके। इसके अतिरिक्त उन्होंने 400 ब्रेल किताब भी बनाई थी जिससे बच्चों को काफी हद तक मदद मिल सके। -Drishti Samajik Sansthan
दृष्टि नाम देने की वजह
इसका नाम दृष्टि इस लिए रखा गया क्योंकि ये शुरुआत में दृष्टिहीन लोगों के लिए ही प्रारंभ हुआ था। इस दौरान लगभग 100 बच्चे यहां क्लास ज्वाइन करने आते थे और फिर उन्हें अपने घर पंहुचाया जाता था। ये मुहिम उन बच्चों के ज़िंदगी को बेहतर कराने का था। इसके अतिरिक्त यहां 50 बच्चे ऐसे थे जो अपंग थे और वे इधर उधर कहीं प्लेटफार्म या सब वे पर पड़े मिल जाते थे। -Drishti Samajik Sansthan
उनके पति का नाम धीरेश बहादुर (Dhiresh Bahadur) है जो दृष्टि सामाजिक संस्थान (Drishti Samajik Sansthan) के विषय में जानकारी साझा कर रहे हैं। वे बैंक में कार्यरत थे परन्तु इस दौरान वह अपने पत्नी की ज्यादा मदद नहीं कर पाते थे। जो भी कार्य था वो सब उनकी पत्नी स्वयं करती थी अपने टीम के साथ। वह बताते हैं कि ये जो बच्चे रहते हैं वो अधिकतर ये नहीं समझता पाते हैं कि उन्हें रहना कैसे है कपड़े कैसे पहनना है और उन्हें टॉयलेट या वॉशरूम में कैसे जाना है और कैसे रहना है?? वह कहते हैं कि ये भगवान का दिया हुआ कार्य है जो हमें करना चाहिए। -Drishti Samajik Sansthan
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कैंसर से हुआ देहांत
भगवान की भी मर्ज़ी यहां देखिए जो दूसरों की मदद के लिए हमेशा त्तपर भी उसे ब्लड कैंसर ने जकड़ लिया और वर्ष 2014 में नीता बहादुर (Nita Bahadur) भगवान को प्यारी हो गई। अब उनके पत्नी का ये कार्य किसी और को संभालना था। उनका एक बेट अथर्व बहादुर (Atharva Bahadur) हैं जो अपने मां के नक्शेदम पर चलता था और उनकी पत्नी भी अपने सास के बनाए उस संस्थान को अपना समझकर पूरी लगन के साथ कार्य शुरू किया। दरअसल उस लड़की का नाम शालू है जो उनके बेटे के साथ बचपन से थी, पढ़ी थी और वह अक्सर ही संस्थान पर आया करती थी। -Drishti Samajik Sansthan
देखभाल को लेकर सभी है सचेत
अब उनदोनो ने इसका जिम्मा अपने ऊपर लिया। इसके अतिरिक्त यहां 100 स्टाफ हैं जो पूरी निष्ठा से इसे अपना समझकर कार्य करते हैं। यहां लगभग 3 शिफ्ट में स्टाफ आते हैं और बच्चों की अच्छी तरह देखभाल करते हैं। कोविड के दौरान भी यहां ना ही किसी बच्चे को कोविड का संक्रमण झलेना पड़ा और ना ही किसी बच्चे को। इससे आप खुद समझ सकते हैं कि यहां की व्यवस्था कितनी सख्त और जिम्मेदारी पूर्ण है। -Drishti Samajik Sansthan
शालू बताती है कि मैंने कभी सोचा भी नहीं था की मेरे ज़िंदगी में ये बदलाव आएगा। परन्तु मैं अक्सर यहां दृष्टि में आया करती थी और मां को देखा करती थी कि वह कैसे अपना जीवन अपने लिए नहीं बल्कि उन बच्चों के लिए जीती है जो इस दुनिया के छल कपट के बारे में कुछ नहीं जानते। मैंने ये जिम्मा लिया लेकिन बच्चों के लिए मुश्किल था मुझे एक्सेप्ट करना। क्योंकि अचानक मां की मृत्यु हो जाने के बाद भी उन्हें बच्चे बहुत मिस कर रहे थे। परंतु धीरे-धीरे मैं आज 240 बच्चों की दीदी बन चुकी हूं और वह मुझे उतना ही प्यार देते हैं जितना मां को देते थे। -Drishti Samajik Sansthan
बच्चों की कला के लिए मिले हैं अवार्ड
उन बच्चों को इस तरह तैयार किया जाता है ताकि वह आगे कुछ कर सकें। जैसे कुछ बच्चे बड़े समझदार होते हैं और उन्हें अगर यह बता दिया जाए कि तुम्हें यह काम रिपीट करना है तो वह उसे कर सकते हैं। उनसे धागे बनवाए जाते हैं, पेंटिंग कराया जाता है, आर्ट कला सिखाया जाता है आदि। यहां के संस्थापक अब ये सोंच रहें है कि आगे उन्हें 18 वर्ष की आयु के बाद कहां और कैसे तैयार करें ताकि वे खुद आत्मनिर्भर बन सकें। हालांकि ये काम बेहद मुश्किल है परंतु इसपर कार्य जारी है। -Drishti Samajik Sansthan
यहां के बच्चों को उनकी कलाओं के लिए अवार्ड भी मिलते हैं और अधिकतर लोग उनके साथ यहां आकर अपना बर्डे सेलिब्रेट भी करते हैं। इससे उन बच्चों को बेहद खुशी भी मिलती है। अगर आप यहां आकर कुछ बच्चों से बात करें तो उन्हें आप परख नहीं सकते कि वे कैसे हैं?? वो बखूबी आपसे बात करते हैं और अपने दोस्तों और अपने विषय में बताते हैं।आपको कविताएं, कहानियां और स्वर वयंजन के बारे में भी बताते हैं। -Drishti Samajik Sansthan
अगर आप भी उन बच्चों के ज़िंदगी मे खुशियां लाना चाहते हैं तो यहां अवश्य जाएं और उनके साथ थोड़ा वक़्त बिताएं। इससे उन्हें खुशी मिलेगी और आप इन बच्चों के जीवन में खुशियां लाने में सक्षम होंगे। –Drishti Samajik Sansthan