भारत में एक ऐसा भी स्कूल है जहां बच्चों से फीस के बदले प्लास्टिक बैग लिया जाता है। इस स्कूल का कोई भी बच्चा पढ़ाई के लिए पैसा नहीं देता बल्कि अपने घर से प्लास्टिक के कचरे लाकर स्कूल को देता है।
विद्यालय में सुबह का दृश्य बड़ा ही मनोरम होता है । स्कूल की घंटी बजते हीं बच्चे अपने हाथ में प्लास्टिक का थैला लिए विद्यालय में प्रवेश करते हैं उन्हें बचपन से ही पर्यावरण के प्रति संजीदगी सिखाई जाती है।असम का अक्षर स्कूल फाउंडेशन स्कूलिंग के साथ-साथ अल्टरनेटिव एजुकेशन पर काम करते हुए यहां पढ़ने वाले बच्चों को किताबी ज्ञान से बाहर की दुनिया दिखाने की कोशिश करता है।
हम लोग एक ऐसा विद्यालय शुरू करना चाहते थे जिसमें बच्चों से पैसे ना लिया जाए। इसके साथ ही असम के गांव में हमने बहुत सारे पर्यावरणीय समस्याओं को देखा मुझे याद है जब हम लोग क्लास में बच्चों को पढ़ा रहे थे तब गांव के घरों से प्लास्टिक के जलने के कारण पूरा वातावरण जहरीली गैसों से भर जाता था। इसी समस्या को समाधान देने के लिए परमिता शर्मा ने मज़ीर मुख्तार के साथ अक्षर स्कूल की नींव 2016 में रखीं ।
अक्षर स्कूल की कहानी
2013 की बात है मज़ीर न्यूयॉर्क से भारत आये थे और वो भारत मे छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए एक स्कूल शुरू करना चाहते थे। तभी उनकी मुलाकात परमिता से हुई जो टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज अपनी पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही थी। परमिता का जन्म आसाम में होने के कारण उन्हें वहां की व्यवस्था के बारे में बखूबी पता था , और उन्होंने मज़ीर को असम के बारे में गाइड किया । इस प्रकार दोनों ने साथ मिलकर अक्षर स्कूल की नींव रखने का प्लान बनाया।
हमने यह सोचा था कि शिक्षा, सामाजिक आर्थिक और पर्यावरणीय संरचनाओं को जोड़ते हुए बच्चों में गुणवत्ता भरने वाली होनी चाहिए , जिसको एक बेहतर आकार देने के लिए हमने एक बेहतरीन कोर्स बनाया । लेकिन अक्षर स्कूल के शुरुआत से ही सबसे बड़ा चैलेंज यह था की यहां बच्चे 10 साल की उम्र से ही पहाड़ों पर पत्थर तोड़ने का काम करते थे और दिन भर में 150-200 रुपये मजदूरी कमा पाते थे । इस हालत में उन्हें स्कूल से जोड़ना बहुत ही मुश्किल कार्य था ।
स्कूल के मॉडल पर हमने यह निर्धारित किया कि ध सीनियर बच्चों को उनसे छोटे बच्चों को पढाने का काम दिया जाय और उसके बदले उन्हें हम टॉय करेंसी देते थे जिसका इस्तेमाल गांव की दुकानों से बिस्किट चिप्स कुरकुरे और यहां तक कि अमेजॉन से शॉपिंग करने में भी किया जा सकता था।
क्या है टॉय करेंसी
हमने एक विशेष प्रकार के नोट डिज़ाइन किये थे जिनका इस्तेमाल कुछ चुनिंदे दुकानों पर हीं किया जा सकता था , उन दुकानों से बाद में करेंसी बदलकर रुपया दे दिया जाता है । इससे बच्चे इन पैसों का इस्तेमाल किसी बुरी आदत के लिए नही कर पाते थे
धीरे-धीरे अक्षर स्कूल अपने अगले पड़ाव पर पहुंचा और अभी यहां पर लगभग 100 बच्चे पढ़ने आते हैं ।सभी बच्चों के घर में यह बताया जा चुका है कि घर से निकलने वाले प्लास्टिक के कचड़े को स्कूल में ही दिया जाए। इन प्लास्टिक की मदद से हम लोग स्कूल में स्ट्रक्चर बनाते हैं जिसके दो फायदे होते हैं। पहला ,स्कूल के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार हो जाता है दूसरा,प्लास्टिक रीसाइकिल होने के कारण बच्चों और गांव वालों में प्लास्टिक के इस्तेमाल के प्रति संजीदगी का एहसास होता है।
अक्षर स्कूल के प्रयास से असम का या गांव अब प्लास्टिक फ्री हो चुका है यहां के लोग अब या तो प्लास्टिक का इस्तेमाल नहीं करते हैं या तो उन्हें रिसाइकल करते हैं।
अक्षर स्कूल के सफलता को देखते हुए मज़ीन और परिमिता ने या प्लान बनाया है कि आने वाले 5 सालों में पूरे भारत मे वह ऐसे 100 स्कूल की शुरुआत करेंगे जिससे बच्चों की पढ़ाई के साथ साथ पर्यावरण को भी बचाया जा सके।
शिक्षा और पर्यावरण के प्रति अक्षर स्कूल के प्रयास को Logically नमन करता है