Wednesday, December 13, 2023

लगभग 25 हज़ार आदिवासी बच्चों के मुफ्त शिक्षा के साथ ही उनके रहने-खाने का भी प्रबन्ध किये हैं: अच्युत सामन्त

एक शिक्षित व्यक्ति ही बेहतर समाज का निर्माण करता है लेकिन शिक्षा प्राप्त करने के लिए एक गुरु की आश्यकता होती है। इस दुनिया में ऐसे भी लोग हैं जिन्हें पढ़ाई का हर साधन मिलता है जिसकी उन्हें जरूरत है फिर भी वे पढ़ाई के महत्तव को नहीं समझते और इसे अनदेखा करते हैं। वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो तमाम तक़लिफों के बावजूद भी पढ़ाई में अव्वल आकर सबके लिए मिसाल बनते हैं। हमारे देश में विभिन्न प्रकार के जाती और धर्म के लोग है। आदिवासी को हम बखूबी जानते हैं मुंडा, भील, गरासिया आदि ये भारत देश में अनादि काल से निवास करते आ रहें हैं। इन आदिमजाति के झुण्ड को ही आदिवासी कहा जाता है। इनके रहन-सहन, वेष-भूषा और बोल-चाल में बहुत फर्क होता है। इनके लिए शिक्षा ग्रहण करना थोड़ा मुश्किल होता है लेकिन अच्युत सामन्त इन आदिवासियों को निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करा रहें हैं।

समाजसेवी अच्युत सामंत

उड़ीसा (Odisa) के अच्युत सामंत (Achyut Samant) का जन्म 20 january 1965 को बहुत ही गरीब परिवार में हुआ। जब यह बहुत छोटे थे तब ही इनके पिता का निधन हो गया। इनकी मां के ऊपर 7 बच्चों का जिम्मा आ गया। अच्युत की मां दिन-रात कड़ी मेहनत करती और अपने बच्चों के लालन-पालन करती। इतना दुःखद वक्त था कि कई दिनों तक भूखा रहना पड़ता था। मां के तकलीफ का आलम इनसे देखा नही गया तो इन्होंने उनकी मदद के लिए पैसे कमाने शुरू कियें। यह स्कूल पढ़ाई करने के लिए लगभग 8 किलोमीटर जाते थे, वह भी नंगे पैर। जब इनकी स्कूलिंग खत्म हुई तो तब यह डिग्री कॉलेज पढ़ने लगे इस दौरान इन्होंने ट्यूशन पढ़ना शुरू किया। फिर ग्रैजुएशन पूरा कर लेक्चरर का कार्य करने लगें। लेकिन इन्हें करना तो कुछ ऐसा था कि सभी इनको अलग सम्मान और नाम से पहचाने।
 
kalinga Institute Of Social Sciences

इन्होंने ऐसा कार्य कर दिखाया है कि अभी तक विश्व मे किसी भी गैर सरकारी और सरकारी संस्था ने नहीं किया है। इन्होंने एक ऐसी शैक्षिक संस्थान का निर्माण किया जिसमें वह लगभग 25000 आदिवासियों को निःशुल्क शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। अपने इस संस्थान में Achyut पढ़ाई ही नहीं बल्कि खाना-पीना और रहने का सारा व्यवस्था निःशुल्क ही करते हैं। इस संस्थान का नाम है “कलिंगा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज”
(Kalinga Institute Of Social Sciences). अपने इस अनोखे और शैक्षणिक कार्य से Achyut
आदिवासी बच्चों को शिक्षा देकर संसार में एक अलग नाम से जाने जा रहे हैं।

बचपन में हुई पिता की मौत

अच्युत के पिता का नाम अनादिचरन सामन्त (Anadicharn samant) था जो जमशेदपुर (Jamshedpur) के टाटा कम्पनी (TATA company) में कार्य करते थे। दुर्भाग्यपूर्ण घर आने के दौरान रेल हादसे में उनकी मौत हो गई। इस वक़्त अच्युत मात्र 4 साल के थे तब उनके पिता का साया उनके सर से उठ गया। घर का सारा ख़र्चा इनके पिता की सैलरी से ही चलता था। गरीबी के कारण उन्हें बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा तभी उन्होंने सोच लिया था कि सिर्फ शिक्षा से इस गरीबी को दूर किया जा सकता है, और मैं यह करूंगा। अभी जो तकलीफ़ मैं भुगत रहा हूं, बहुत कम लोगों को यह तकलीफ भुगतने दूंगा। जब यह बड़े हुयें तब इन्होंने गरीब आदिवासी बच्चों के लिये होस्टल और यूनिवर्सिटी की शुरुआत कर इनकी तकलीफ दूर करने में लग गए।

मां ने उठाई जिम्मेदारी

अच्युत की मां का नाम नीलिमा रानी (Neelima Rani) था और वह एक कुशल गृहिणी (Housewife) थी। अपने पति की मौत के बाद यह अपने गांव जमशेदपुर से कलारबंका लौट आई। नीलिमा ने अपने बच्चों की अपने ऊपर लिया। अच्युत से दो बड़े भाई और तीन बड़ी बहने थी थी, इनके बाद एक छोटी बहन थी जिसका नाम इति है। इति पिता की मौत के दौरान 1 महीने की थी। अनादिचरन बहुत दयालु किस्म के आदमी थे। वह जो भी कमाते हैं उससे घर का खर्चा चलता। उसमे से जो भी पैसे बचते, वह गरीब और जरूरतमंदों में दे देते। नीलिमा अपने बच्चों को पालने के लिए जूठे बतर्न साफ करती थी। कभी-कभी बच्चों के लिए खाने को कुछ भी नहीं रहता था। वह गांव में लोगों के घर धान की ओसाई करती सब्जीयां उगाकर बेचती।

सौभाग्यशाली थे अच्युत जो आंख बच गई

अच्युत की मां जब भोजन बनाती तो लाइन के अनुसार सबको खाना खिलाती। पहले जो बड़ा है, वही खाना खाता फिर अगले की बारी आती। अच्युत ने इस नियम का उल्लंघन किया तो उनकी मां ने गुस्से में पिटाई भी की। मां की मार से उनकी आंख चोटिल हुई लेकिन उनका सौभाग्य था कि उनकी आंख में कोई प्रॉब्लम नहीं हुई। मां को इस बात का पछतावा भी हुआ कि उन्होंने अपने बच्चे को इस कदर मारा, ऐसे नहीं मारना चाहिए। आगे चलकर उन्होंने डॉक्टर से अच्युत का इलाज भी करवाया।

स्कूल में हुआ नामकरण

गरीबी इस कदर थी कि मां अपने बच्चों का भरण पोषण करने के लिए इतनी मेहनत करते थी तो वह अपने बच्चों को कहां से पढ़ाये। एक दिन कुछ बच्चों के साथ खेलते-खेलते अच्युत सरकारी स्कूल के आंगन में चले गए। वहां शिक्षक ने सभी बच्चों को धमकाया कि वह उन्हें मारेंगे। इस डर से बच्चे भाग गए। लेकिन अच्युत वहां से भागे नहीं शिक्षक ने उन्हें पकड़ कर उनसे कुछ बातें की। शिक्षक ने पहली बार इस लड़के को देखा था इसलिए पूछे कि तुम यहां पढ़ने क्यों नहीं आते हो? तुम भी पढ़ाई किया करो। शिक्षा मनुष्य के जीवन के लिए बहुत ही आवश्यक है। फिर अगले दिन मास्टर ने उन्हें स्कूल आने के लिए कहा। अच्युत जब स्कूल में गया तो उन्होंने नाम दर्ज कराने के लिए अपने शिक्षक को अपना नाम बताया, उस टाइम उनका नाम “सुटुका” था। यह नाम सुनकर वह अचंभित हो गए और उन्होंने कहा, मैं तुम्हें एक नया नाम देता हूं, वह भी भगवान के नाम पर। उन्होंने इनका नाम अच्युत रखा। घर आकर अच्युत ने अपनी मां को सारी कहानी बताई। मां अपने बच्चे का नाम सुन बहुत खुश हुई और उनकी आंखों से आंसू छलक पड़े।

पढ़ाई के साथ-साथ फल और सब्जियां भी बेचते थे

स्कूल जाना प्रारंभ कर चुके थे जब उधर से लौटकर घर आते तो वह अपनी मां की मदद किया करते थे। मां के साथ चावल तैयार करने का काम करते और सब्जियां भी बेंचते थे। उनकी मां अपने बच्चों को सिखाती कि वे आत्मनिर्भर रहें ताकि कोई ना हो तो उन्हें आगे चलकर कोई दिक्कत ना हो। इसलिए वह छोटी उम्र से ही नारियल और केले बेचने का भी काम किया था। अच्युत जो पैसे कमाते वह अपनी मां और दीदी को दे देते । उसके बाद जो पैसे बचते अपने पिता की तरह गरीब लोगों की मदद भी करते थे। अगर महिलाओं को किसी प्रकार की ज़रूरत पड़ती तो साइकिल की मदद से छोटी उम्र में ही उनके सामान बाजार से ला दिया करते थे। जिसके कारण सभी उन्हें बहुत प्यार करते थे। इन्होंने उसी समय यह निर्णय लिया कि वह हमेशा ही लोगों की मदद किया करेंगे और ऐसे ही उनका प्यार और आशीर्वाद लेते रहेंगे।

आदिवासी बच्चों को किया शिक्षित

यह जब फॉर्मेसी क्लास में पढ़ा रहे थे उस दौरान उन्होंने सोचा कि वह गरीब बच्चों को पढ़ाएंगे इसलिए उन्होंने 125 आदिवासी बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। बाद में 1993 में उन्होंने अपना आईटीआई संस्थान खोला। उनके हौसले बुलंद थे इसीलिए उन्होंने ₹5000 से यह कार्य शुरू किया उनके पास ना ही कोई मकान था जहां वह बच्चों को पढ़ायें। फिर भी उन्होंने अपने दम पर यह कार्य जारी रखा शुरुआती दौर में इस संस्थान में 2 शिक्षक और 12 विद्यार्थी रहते थे।

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युवाओं के लिए खोला इंजीनियरिंग कॉलेज

अच्युत युवाओं के लिए इंजीनियरिंग कॉलेज खोलना चाहते थे लेकिन उनके पास ना ही मददगार थे और ना ही खुद की जमीन जिससे वह वहां कॉलेज की स्थापना करें। उन्होंने बैंक से 25 लाख रुपये कर्ज लिए और 1997 में इंजीनियरिंग कॉलेज खोला। इस दौरान कलिंगा इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडस्ट्रियल टेक्नोलॉजी एक इंजीनियरिंग कॉलेज में बदल गया। 2004 में यह कॉलेज “कीट” (KIIT) केआईआईटी नाम से विख्यात हुआ और इसे विश्वविद्यालय का दर्जा भी मिला। 15 वर्ग किलोमीटर में फैले इस विश्वविद्यालय में 12 कैंपस है। यह देखने में बहुत आकर्षक और पर्यावरण कुल है। इस विद्यालय में लगभग 100 से अधिक विभिन्न स्नाकोत्तर कक्षाएं हैं। अब इसमें 25000 बच्चे पढ़ रहे हैं।

खोला है हॉस्पिटल

गरीब और जरूरतमंद की मदद के लिए अच्युत हमेशा तैयार रहे हैं। उन्होंने अपने विश्वविद्यालय के प्रांगण में मेडिकल कॉलेज, नर्सिंग कॉलेज, और डेंटल कॉलेज भी खोले हैं। साथ ही गरीब लोगों की मदद के लिए उन्होंने गांव में दवाखाना भी खोलें हैं। अच्युत की संस्था एक न्यूज़ चैनल भी चलाती है। बच्चों के लिए यह कादम्बिनी नाम से पत्रिका खोलें हैं। कलिंगा यूनिवर्सिटी विश्व का सबसे बड़ा संस्था है जहां आदिवासी बच्चों को शिक्षा दिया जा रहा है। यहां बच्चों को अलग-अलग भाषाएं सिखाई जाती है। नेशनल और इंटरनेशनल कंपटीशन में हिस्सा लेने के लिए इनको तैयार किया जाता है। जब बच्चे अपनी पढ़ाई संपन्न कर लेते हैं उन्हें एक अच्छी नौकरी दिलवाने के लिए भी कार्य किया जाता है। आदिवासी बच्चों की कामयाबी देख इन्हें अच्छी कंपनियों में नौकरियां भी मिल रही है।

एक दिन का खर्च 50 लाख रूपये

अच्युत की इस संस्था को चलाने में 1 दिन में 50,00,000 रुपए खर्च होते हैं। 25 हज़ार बच्चों को रात्रि और दोपहर के भोजन के लिए कम से कम 2,220 किलो दाल 7,500 किलो चावल 2800 किलो चिकन 600 किलो मछली और 25,000 अंडे खाने के लिए दिए जाते हैं। सुबह के भोजन के लिए दूध दही चावल कॉर्नफ्लेक्स भी दिए जाते हैं।

रहते हैं किराए के मकान मे

अच्युत हमेशा सफेद कपड़े पहनते हैं। अभी तक इन्होंने शादी नहीं की। मुनेश्वर के किराए के मकान में रहते हैं। इनके पैरों में चप्पल रहते हैं। जूते तक नहीं पहनते। एक दिन में वह लगभग 16 से 18 घंटे तक काम करते हैं। ज्यादातर स्कूल में सबको घूमते दिखाई देते हैं।
 
मिलें हैं पुरस्कार

अच्छी तरह ज़िंदगी के गाड़ी की शुरुआत की और उस कार्य में लगे हुए हैं। इनके समाजसेवी और शैक्षणिक कार्यों के लिए इन्हें नेशनल और इंटरनेशनल अवार्ड भी मिल चुके हैं। लगभग 25 विश्वविद्यालय से इन्हें डी.लिट की उपाधि मिली है। अति पिछड़े वर्ग में पैदा होकर भी यह समाजसेवा कियें और कर रहें है। The Logically Achyut को नमन करता है।

समाजसेवी अच्युत सामंत

उड़ीसा (Odisa) के अच्युत सामंत (Achyut Samant) का जन्म 20 january 1965 को बहुत ही गरीब परिवार में हुआ। जब यह बहुत छोटे थे तब ही इनके पिता का निधन हो गया। इनकी मां के ऊपर 7 बच्चों का जिम्मा आ गया। अच्युत की मां दिन-रात कड़ी मेहनत करती और अपने बच्चों के लालन-पालन करती। इतना दुःखद वक्त था कि कई दिनों तक भूखा रहना पड़ता था। मां के तकलीफ का आलम इनसे देखा नही गया तो इन्होंने उनकी मदद के लिए पैसे कमाने शुरू कियें। यह स्कूल पढ़ाई करने के लिए लगभग 8 किलोमीटर जाते थे, वह भी नंगे पैर। जब इनकी स्कूलिंग खत्म हुई तो तब यह डिग्री कॉलेज पढ़ने लगे इस दौरान इन्होंने ट्यूशन पढ़ना शुरू किया। फिर ग्रैजुएशन पूरा कर लेक्चरर का कार्य करने लगें। लेकिन इन्हें करना तो कुछ ऐसा था कि सभी इनको अलग सम्मान और नाम से पहचाने।
 
kalinga Institute Of Social Sciences

इन्होंने ऐसा कार्य कर दिखाया है कि अभी तक विश्व मे किसी भी गैर सरकारी और सरकारी संस्था ने नहीं किया है। इन्होंने एक ऐसी शैक्षिक संस्थान का निर्माण किया जिसमें वह लगभग 25000 आदिवासियों को निःशुल्क शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। अपने इस संस्थान में Achyut पढ़ाई ही नहीं बल्कि खाना-पीना और रहने का सारा व्यवस्था निःशुल्क ही करते हैं। इस संस्थान का नाम है “कलिंगा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज”
(Kalinga Institute Of Social Sciences). अपने इस अनोखे और शैक्षणिक कार्य से Achyut
आदिवासी बच्चों को शिक्षा देकर संसार में एक अलग नाम से जाने जा रहे हैं।

बचपन में हुई पिता की मौत

अच्युत के पिता का नाम अनादिचरन सामन्त (Anadicharn samant) था जो जमशेदपुर (Jamshedpur) के टाटा कम्पनी (TATA company) में कार्य करते थे। दुर्भाग्यपूर्ण घर आने के दौरान रेल हादसे में उनकी मौत हो गई। इस वक़्त अच्युत मात्र 4 साल के थे तब उनके पिता का साया उनके सर से उठ गया। घर का सारा ख़र्चा इनके पिता की सैलरी से ही चलता था। गरीबी के कारण उन्हें बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा तभी उन्होंने सोच लिया था कि सिर्फ शिक्षा से इस गरीबी को दूर किया जा सकता है, और मैं यह करूंगा। अभी जो तकलीफ़ मैं भुगत रहा हूं, बहुत कम लोगों को यह तकलीफ भुगतने दूंगा। जब यह बड़े हुयें तब इन्होंने गरीब आदिवासी बच्चों के लिये होस्टल और यूनिवर्सिटी की शुरुआत कर इनकी तकलीफ दूर करने में लग गए।

मां ने उठाई जिम्मेदारी

अच्युत की मां का नाम नीलिमा रानी (Neelima Rani) था और वह एक कुशल गृहिणी (Housewife) थी। अपने पति की मौत के बाद यह अपने गांव जमशेदपुर से कलारबंका लौट आई। नीलिमा ने अपने बच्चों की अपने ऊपर लिया। अच्युत से दो बड़े भाई और तीन बड़ी बहने थी थी, इनके बाद एक छोटी बहन थी जिसका नाम इति है। इति पिता की मौत के दौरान 1 महीने की थी। अनादिचरन बहुत दयालु किस्म के आदमी थे। वह जो भी कमाते हैं उससे घर का खर्चा चलता। उसमे से जो भी पैसे बचते, वह गरीब और जरूरतमंदों में दे देते। नीलिमा अपने बच्चों को पालने के लिए जूठे बतर्न साफ करती थी। कभी-कभी बच्चों के लिए खाने को कुछ भी नहीं रहता था। वह गांव में लोगों के घर धान की ओसाई करती सब्जीयां उगाकर बेचती।

सौभाग्यशाली थे अच्युत जो आंख बच गई

अच्युत की मां जब भोजन बनाती तो लाइन के अनुसार सबको खाना खिलाती। पहले जो बड़ा है, वही खाना खाता फिर अगले की बारी आती। अच्युत ने इस नियम का उल्लंघन किया तो उनकी मां ने गुस्से में पिटाई भी की। मां की मार से उनकी आंख चोटिल हुई लेकिन उनका सौभाग्य था कि उनकी आंख में कोई प्रॉब्लम नहीं हुई। मां को इस बात का पछतावा भी हुआ कि उन्होंने अपने बच्चे को इस कदर मारा, ऐसे नहीं मारना चाहिए। आगे चलकर उन्होंने डॉक्टर से अच्युत का इलाज भी करवाया।

स्कूल में हुआ नामकरण

गरीबी इस कदर थी कि मां अपने बच्चों का भरण पोषण करने के लिए इतनी मेहनत करते थी तो वह अपने बच्चों को कहां से पढ़ाये। एक दिन कुछ बच्चों के साथ खेलते-खेलते अच्युत सरकारी स्कूल के आंगन में चले गए। वहां शिक्षक ने सभी बच्चों को धमकाया कि वह उन्हें मारेंगे। इस डर से बच्चे भाग गए। लेकिन अच्युत वहां से भागे नहीं शिक्षक ने उन्हें पकड़ कर उनसे कुछ बातें की। शिक्षक ने पहली बार इस लड़के को देखा था इसलिए पूछे कि तुम यहां पढ़ने क्यों नहीं आते हो? तुम भी पढ़ाई किया करो। शिक्षा मनुष्य के जीवन के लिए बहुत ही आवश्यक है। फिर अगले दिन मास्टर ने उन्हें स्कूल आने के लिए कहा। अच्युत जब स्कूल में गया तो उन्होंने नाम दर्ज कराने के लिए अपने शिक्षक को अपना नाम बताया, उस टाइम उनका नाम “सुटुका” था। यह नाम सुनकर वह अचंभित हो गए और उन्होंने कहा, मैं तुम्हें एक नया नाम देता हूं, वह भी भगवान के नाम पर। उन्होंने इनका नाम अच्युत रखा। घर आकर अच्युत ने अपनी मां को सारी कहानी बताई। मां अपने बच्चे का नाम सुन बहुत खुश हुई और उनकी आंखों से आंसू छलक पड़े।

पढ़ाई के साथ-साथ फल और सब्जियां भी बेचते थे

स्कूल जाना प्रारंभ कर चुके थे जब उधर से लौटकर घर आते तो वह अपनी मां की मदद किया करते थे। मां के साथ चावल तैयार करने का काम करते और सब्जियां भी बेंचते थे। उनकी मां अपने बच्चों को सिखाती कि वे आत्मनिर्भर रहें ताकि कोई ना हो तो उन्हें आगे चलकर कोई दिक्कत ना हो। इसलिए वह छोटी उम्र से ही नारियल और केले बेचने का भी काम किया था। अच्युत जो पैसे कमाते वह अपनी मां और दीदी को दे देते । उसके बाद जो पैसे बचते अपने पिता की तरह गरीब लोगों की मदद भी करते थे। अगर महिलाओं को किसी प्रकार की ज़रूरत पड़ती तो साइकिल की मदद से छोटी उम्र में ही उनके सामान बाजार से ला दिया करते थे। जिसके कारण सभी उन्हें बहुत प्यार करते थे। इन्होंने उसी समय यह निर्णय लिया कि वह हमेशा ही लोगों की मदद किया करेंगे और ऐसे ही उनका प्यार और आशीर्वाद लेते रहेंगे।

आदिवासी बच्चों को किया शिक्षित

यह जब फॉर्मेसी क्लास में पढ़ा रहे थे उस दौरान उन्होंने सोचा कि वह गरीब बच्चों को पढ़ाएंगे इसलिए उन्होंने 125 आदिवासी बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। बाद में 1993 में उन्होंने अपना आईटीआई संस्थान खोला। उनके हौसले बुलंद थे इसीलिए उन्होंने ₹5000 से यह कार्य शुरू किया उनके पास ना ही कोई मकान था जहां वह बच्चों को पढ़ायें। फिर भी उन्होंने अपने दम पर यह कार्य जारी रखा शुरुआती दौर में इस संस्थान में 2 शिक्षक और 12 विद्यार्थी रहते थे।

युवाओं के लिए खोला इंजीनियरिंग कॉलेज

अच्युत युवाओं के लिए इंजीनियरिंग कॉलेज खोलना चाहते थे लेकिन उनके पास ना ही मददगार थे और ना ही खुद की जमीन जिससे वह वहां कॉलेज की स्थापना करें। उन्होंने बैंक से 25 लाख रुपये कर्ज लिए और 1997 में इंजीनियरिंग कॉलेज खोला। इस दौरान कलिंगा इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडस्ट्रियल टेक्नोलॉजी एक इंजीनियरिंग कॉलेज में बदल गया। 2004 में यह कॉलेज “कीट” (KIIT) केआईआईटी नाम से विख्यात हुआ और इसे विश्वविद्यालय का दर्जा भी मिला। 15 वर्ग किलोमीटर में फैले इस विश्वविद्यालय में 12 कैंपस है। यह देखने में बहुत आकर्षक और पर्यावरण कुल है। इस विद्यालय में लगभग 100 से अधिक विभिन्न स्नाकोत्तर कक्षाएं हैं। अब इसमें 25000 बच्चे पढ़ रहे हैं।

खोला है हॉस्पिटल

गरीब और जरूरतमंद की मदद के लिए अच्युत हमेशा तैयार रहे हैं। उन्होंने अपने विश्वविद्यालय के प्रांगण में मेडिकल कॉलेज, नर्सिंग कॉलेज, और डेंटल कॉलेज भी खोले हैं। साथ ही गरीब लोगों की मदद के लिए उन्होंने गांव में दवाखाना भी खोलें हैं। अच्युत की संस्था एक न्यूज़ चैनल भी चलाती है। बच्चों के लिए यह कादम्बिनी नाम से पत्रिका खोलें हैं। कलिंगा यूनिवर्सिटी विश्व का सबसे बड़ा संस्था है जहां आदिवासी बच्चों को शिक्षा दिया जा रहा है। यहां बच्चों को अलग-अलग भाषाएं सिखाई जाती है। नेशनल और इंटरनेशनल कंपटीशन में हिस्सा लेने के लिए इनको तैयार किया जाता है। जब बच्चे अपनी पढ़ाई संपन्न कर लेते हैं उन्हें एक अच्छी नौकरी दिलवाने के लिए भी कार्य किया जाता है। आदिवासी बच्चों की कामयाबी देख इन्हें अच्छी कंपनियों में नौकरियां भी मिल रही है।

एक दिन का खर्च 50 लाख रूपये

अच्युत की इस संस्था को चलाने में 1 दिन में 50,00,000 रुपए खर्च होते हैं। 25 हज़ार बच्चों को रात्रि और दोपहर के भोजन के लिए कम से कम 2,220 किलो दाल 7,500 किलो चावल 2800 किलो चिकन 600 किलो मछली और 25,000 अंडे खाने के लिए दिए जाते हैं। सुबह के भोजन के लिए दूध दही चावल कॉर्नफ्लेक्स भी दिए जाते हैं।

रहते हैं किराए के मकान मे

अच्युत हमेशा सफेद कपड़े पहनते हैं। अभी तक इन्होंने शादी नहीं की। मुनेश्वर के किराए के मकान में रहते हैं। इनके पैरों में चप्पल रहते हैं। जूते तक नहीं पहनते। एक दिन में वह लगभग 16 से 18 घंटे तक काम करते हैं। ज्यादातर स्कूल में सबको घूमते दिखाई देते हैं।
 
मिलें हैं पुरस्कार

अच्छी तरह ज़िंदगी के गाड़ी की शुरुआत की और उस कार्य में लगे हुए हैं। इनके समाजसेवी और शैक्षणिक कार्यों के लिए इन्हें नेशनल और इंटरनेशनल अवार्ड भी मिल चुके हैं। लगभग 25 विश्वविद्यालय से इन्हें डी.लिट की उपाधि मिली है। अति पिछड़े वर्ग में पैदा होकर भी यह समाजसेवा कियें और कर रहें है। The Logically Achyut को नमन करता है।