छठ बिहार का एक प्रमुख त्योहार है, जिसे लोग त्योहार ना मानकर अपने परंपरा से जोड़कर देखते हैं। छठ हम बिहारियों के लिए बस एक शब्द नहीं है बल्कि छठ हमारी भावना से जुड़ा हुआ है। अपनी मां, दादी, नानी, मौसी, मामी और घर की अन्य महिलाओं को हमने छठ करते हुए देखा है, मगर छठ एक ऐसा त्योहार है, जिसमें पुरुष भी छठी मैया को अर्घ्य देते हैं। छठ एक ऐसा त्योहार है, जिसमें सभी अंतर समाप्त हो जाते हैं। कोई गरीब, कोई अमीर नहीं होता बल्कि केवल श्रद्धा होती है।
चैत्र नवरात्र शुरू है, और अब चैत्र माह का महापर्व छठ भी आ गया है, जिससे हम बिहारी हमेशा से जुड़ाव महसूस करते हैं। छठ में कोई तामझाम नहीं होता बल्कि सामान्य रूप से मिलने वाले फल, फूल से ही पूजा सम्पन्न की जाती है। छठ हमें प्रकृति से जोड़ता है, छठ हमें हमारे संस्कार से जोड़ता है। बच्चे अपनों से बड़ों के पैर छूते हैं। शाम और सुबह के अर्घ्य के बाद छठ व्रतियों के कपड़ों को धोने के लिए भी बच्चों में होड़ लग जाती है। बच्चों का उत्साह देखते ही बनता है।
छठ का महा प्रसाद ठेकुआ की महक चारों तरफ से आने लगती है। शुद्ध घी में गेंहू के आटे से बना प्रसाद बहुत सेहतमंद होता है। हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूती प्रदान करता है।
पहले के समय में लोग छठ को केवल पुत्र प्राप्ति से जोड़ देते थे, मगर अब ऐसा नहीं है। बदलाव का विस्तार छठ में भी देखने के लिए मिला है। “रूनकी झुनकी बेटी” भी अब उसी उत्साह से मांगी जाती है, जिस उत्साह से लोग बेटों की चाह रखते हैं।
छठ केवल आस्था नहीं है, बल्कि छठ हम बिहारियों से जुड़ी एक ऐसी भावना है, जिससे दूर हो जाना किसी भी बिहारी के लिए संभव ही नहीं है। छठ आते ही मांओं के फोन आने लगते हैं कि “बेटा, छठ है वापस आ जा।” “बेटी, छठ त्योहार है, तेरे बिना कैसे करूंगी।” बेटी और बेटा दोनों भी अपनी मां की मदद करते हैं। सभी छठ व्रतियों की मदद की जाती है, जिसमें से पुण्य मिलने की आस्था होती है।
“शीतली बेरिया शीतल दूजे पनिया” के साथ छठ पर्व के अंतिम दिन सूर्य की राह तकी जाती है, और सुबह के अर्घ्य के साथ पूजन संपन्न किया जाता है।