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बचपन से ही खुद हैं दिव्यांग फिर भी जरूरत पड़ी तो अपनी ट्राई साईकिल एक अन्य दिव्यांग को दिए: समाज के लिए बने प्रेरणा

क्या आपने कभी सोचा है कि किसी ऐसे व्यक्ति के लिए जो किसी हादसे के चलते अपना कोई अंग गंवा चुका हो या फिर उसमें जन्मजात ही कोई क्षति रह गई हो ‘विकलांग’ शब्द के स्थान पर ‘दिव्यांग’ शब्द क्यों प्रयोग होता है। शायद आपने सोचा हो कि विकलांग शब्द सम्मानजनक नही लगता इसलिए ही दिव्यांग कहा जाता है। हाँ काफी हद तक आपकी सोच सही है। लेकिन, दिव्यांग शब्द इस्तेमाल करने की एक अन्य वजह भी है जो सर्वमाननीय है वो ये कि ऐसे लोगों में एक ऐसी दिव्यता या दिव्य शक्ति का संचार होता है जो एक सामान्य शरीर वाले मनुष्य में बिल्कुल नही है, वो है – सह्द्रयता। एक ऐसे ही समाजसेवी पुरुष राधेश्याम गुप्ता जी जो स्वंय दिव्यांग होते हुए और अपने “इंसानियत ज़िंदाबाद” के नारे को समाज में फैलाते हुए गरीब, बेसहार, मजबूर, बामीर व लाचार लोगों की मदद के लिए एक मसीहा बनकर सामने आये हैं उनकी कहानी से The Logically अपने पाठकों को रुबरु करना चाहता है।

राधेश्याम जी ने एक नई मिसाल कायम की

1779 में जन्में समाजसेवी राधेश्याम जी जो स्वंय से ही दिव्यांग हैं यह कहते हुए कि -“मैं तो किसी तरह अपना काम गिरते-पड़ते कर ही लेता हूं, मुझसे अधिक ज़रुरत इस साईकिल की अवधेश जी को है और अब इस साईकिल के सहारे अवधेश जी अपना जीवन सामान्य रुप से जी सकेंगें, सच कहूं तो यह भेंट देकर मैं खुद को सौभाग्यशाली महसूस कर रहा हूं” – सरकार द्वारा मिली अपनी ट्राई साईकिल एक अन्य दिव्यांग अवधेश मिश्र जो कि बिहार स्थित सारण जिले के जलालपुर प्रखंड के मिश्रवलिया गांव में रहते हैं को भेंट कर दी। सच मानें तो यह सह्द्रयता ही दिव्यांग शब्द का पर्याय है।

Divyang Radheshyam ji help poor people
जरूरतमंदों की मदद करते हुए

कमर से जुड़ा था एक चमड़े की थैली जैसा अंग

राधेश्याम जी कहते हैं – “जब मेरा जन्म हुआ तो मेरे शरीर में कमर के पास एक चमड़े की थैली जैसा कुछ विकसित हो रहा था जो कि मेरी पांच वर्ष की आयु आते-आते एक पानी भरे गुब्बारे के साइज़ का होने लगा था। उस समय साइंस के ज़्यादा विकसित न होने के चलते यह केस डॉक्टरों की समझ से बाहर था, बहरहाल मुझे पटना रेफर कर दिया गया , सीनियर डॉक्टरों द्वारा सर्जरी के बाद उस थैली के प्रकार के अंग को अलग तो कर दिया गया किंतु डाक्टरों नें ये क्लियर कर दिया था कि भविष्य में इसका दुष्प्रभाव शरीर के किसी अन्य अंग या दिमाग पर पड़ सकता है, शायद उसी ऑपरेशन के परिणामस्वरुप यह दिव्यांगता मुझे मिली हो।”

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संघर्षो भरा रहा राधेश्याम जी का बचपन

The Logically से अपने संघर्षपूर्ण बचपन को याद करते हुए राधेश्याम जी कहते हैं – “जब मैनें होश संभाला तो खुद को फटे-सुटे वस्त्रों में पाया, इतनी गरीबी थी कि यदि सुबह भोजन मिल भी जाता तो शाम के भोजन की चिंता मेरे स्वर्गीय पिता नंदलाल साह को सताये रहती, केवल दो किलो मूंगफली से भरी एक टिन को साईकिल पर लाद मेरे पिताजी उसे बेचने के लिए निकल पड़ते थे, जिस दिन बिक जाता गुज़ारा हो जाता लेकिन, जिस दिन सामान न बिक पाता मेरे पिताजी के माथे कि शिकन हम सबको व्यथित कर देती ऐसे में मेरी माँ चंद्रावती देवी हम चार भाई-बहनों को थोड़ा-थोड़ा बचाकर रखे हुए अनाज के दानों से कुछ बनाकर खिला दिया करती थीं, मैं जानता हूं कि वो खुद भूखी ही रह जातीं थीं”

माँ ने बनाया छड़ी के सहारे चलने लायक

राधेश्याम जी कहते हैं – “आज छड़ी के सहारे जो थोड़ा-बहुत चल फिर लेता हूं केवल अपनी माँ की वजह से। मेरी माँ रोज रात न केवल दो घंटे मेरे पैरों की मालिश करतीं बल्कि दिन में मेरे हाथ पकड़ मुझे चलाने का अभ्यास करातीं और उनके इसी प्रयास ने मुझे छड़ी के सहारे चलने लायक बना दिया है”

शिक्षा के महत्व को समझाया पिता नें

स्वंय कम शिक्षित होने के बावजूद राधेश्याम के पिता नें शिक्षा के महत्व को समझते हुए उनका दाखिला गांव के सरकारी स्कूल में करावते हुए स्लेट और पैंसिल लाकर दी।

कम उम्र में ही हुआ जिम्मेदारी का आभास

समाजसेवी राधेश्याम जी कहते हैं – “पांचवी कक्षा में ही पढ़ते हुए जब मैं केवल ग्यारह वर्ष का था मुझे यह महसूस होने लगा कि पिताजी अकेले ही हम सब की ज़रुरतों को पूरा करने के लिए जीवन की कठिनाईंयों से जूझ रहे हैं, ऐसे में मैनें साहस करते हुए पिताजी के आगे पढ़ाई के अलावा काम करने का प्रस्ताव रखा, जिस पर छोड़ी देर विचारनें के बाद उन्होनें हामी भर ली और मेरे ही कहने पर मुझे बेचने के लिए कुछ खाने-पीने संबंधी चीज़ें जैसे टॉफी- चॉकलेट ला दीं। उसके बाद मैनें सब्जी मंडी जाकर जो पहले दस-बीस गांवों की दूरी पर हुआ करती थीं, लेकिन सौभाग्यवश मेरी जन्मभूमी पैगंम्बर पुर में ही मंडी थी, वहां जाकर एक बोरी पर उन सामानों की दुकान लगा बेचने लगा। जिसके बाद मुझे पाँच से सात रुपये बच जाते थे उस समय के हिसाब से यह पैसे काफी हुआ करते थे इस तरह मेरे प्रयास से घर की आमदनी में एक सहयोग मिलने लगा था।“

Radheshyam Gupta

बड़ी बहन के विवाह में सहायक बने राधेश्याम

विकलागंता शरीर से ज़्यादा बुद्धि की होती है। भले ही समाज एक विकलांग व्यक्ति को नकारा समझता हो लेकिन राधेश्याम जी ने छोटे स्तर पर ही सही लेकिन पिता की न केवल आय में सहायक बन बल्कि बचाये हुए पैसों से बड़ी बहन के विवाह में आर्थिक सहायता कर यह साबित कर दिया कि भले ही वह शरीर से किस प्रकार असहज हों लेकिन बुद्धि या मन से नही।

दलित बस्ती में जाकर पढ़ाई ट्यूशन

आठंवी कक्षा में पहुंचने के बाद राधेश्याम जी नें बाज़ार में जाकर सामान बेचना छोड़ दलित बस्तियों में जाकर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरु कर दिया। उनका केवल यह प्रण था कि पैसे के अभाव में किसी बच्चे की शिक्षा न छूटे। जिसमें कोई फीस तय नही की गई थी, स्वेच्छा से जो मिल जाता ठीक था। यह सिलसिला उनके रामपुर के सुखदेव सिंह इंटर कॉलेज से फर्स्ट डिवीज़न में इंटरमिडिएट करने तक बना रहा।

टीचर ट्रेनिंग के सपने को नही कर पाये पूरा

The Logically से हुई बातों के दौरान राधेश्याम जी कहते हैं कि आर्थिक अभावों के चलते वे टीचर ट्रेनिंग करने के अपने सपने व पढ़ने की तीव्र इच्छा को पूरा नही कर पाये जिसका मलाल हमेशा रहेगा।

स्वंय दिव्यांग होते हुए दूसरों से ली प्रेरणा

राधेश्याम जी कहते हैं कि अपनी दादी के गुज़रने के बाद और यह समझ लेने के बाद की आगे उनकी पढ़ाई संभव नही, उन्होनें पटना स्टेशन पर जाकर छोटा-मोटा सामान बेचना शुरु कर दिया। जहां उन्होनें पाया कि बहुत से लोग ऐसे हैं जो न केवल सर्द रातों में सड़कों पर जीवन जीने को मजबूर हैं बल्कि पैसे से बेहद मजबूर हैं। उनसे स्वंय को समर्थ पाते हुए राधेश्याम जी नें ताउम्र समाज सेवा की दिशा में ही कुछ करने की ठान ली। समाजसेवी कहते हैं कि यदि आपने इंसान के रुप में जन्म लिया है तो आपका यह धर्म बनता है कि आप अपने अलावा दूसरों के लिए भी अपनें जीवन को समर्पित करें।

समाजिक कार्यों में सहभागिता के लिए सम्मानित हुए

मदद के लिए अपनाया सोशल मीडिया को

The Logically से राधेश्याम जी कहते हैं – “हम गरीब, लाचार, बेबस एवं बीमार व्यक्ति की समस्या को अच्छे से जान-समझकर सोशल मीडिया के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाते हैं, इस कार्य के लिए हम उस व्यक्ति का निजी अकाउंट नंबर सार्वजनिक करते हैं, इसके बाद क्राउड फंडिंग के ज़रिये उस व्यक्ति को आर्थिक मदद मिलने लगती है। वर्तमान में बाहरी देशों जैसे सिंगापुर, दुबई, अफ्रीका तक से मदद के इच्छुक मित्र हमसे जुड़ते जाते हैं, इन सब कार्यों के दौरान कभी अपनी शारीरिक अक्षमता का ख़्याल ही मेरे दिमाग में नही आता, बल्कि स्वंय को एक प्रेरणा मिलती है” राधेश्याम जी सबसे पहले आगे आते हैं, धीरे-धीरे लोग आते जाते हैं, श्रृखंला बनती जाती है और ज़रुरतमंद इंसान का कल्याण हो जाता है।

छोटी सी दुकान भी चलाते हैं राधेश्याम जी

पैसे की आवश्यकता तो हमेशा ही होती है इस बात को समझते हुए राधेश्याम जी वर्तमान में छोटी सी दुकान चलाते हैं जिसकी आय का बेहद मामूली हिस्सा खुद के लिए रखकर बाकी समाजसेवा में लगा देते हैं। इसके अलावा गांव-गांव जाकर छोटे बच्चों को शिक्षित करने का काम भी करते हैं। The Logically भी राधेश्याम गुप्ता जी के समाजसेवा भाव और “इंसानियत जिंदाबाद” के नारे को विस्तृत रुप देने की इच्छा को सफलता मिलने की कामना करता है।

अर्चना झा दिल्ली की रहने वाली हैं, पत्रकारिता में रुचि होने के कारण अर्चना जामिया यूनिवर्सिटी से जर्नलिज्म की पढ़ाई पूरी कर चुकी हैं और अब पत्रकारिता में अपनी हुनर आज़मा रही हैं। पत्रकारिता के अलावा अर्चना को ब्लॉगिंग और डॉक्यूमेंट्री में भी खास रुचि है, जिसके लिए वह अलग अलग प्रोजेक्ट पर काम करती रहती हैं।

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