“पढ़ेगा इंडिया तभी तो बढ़ेगा इंडिया” यह सिर्फ कहने से मुमकिन नहीं है। अभी देश में कई ऐसे राज्य हैं जहां की साक्षरता दर बहुत ही कम है। साल 2011 की जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक देश में सबसे कम साक्षरता दर वाला राज्य बिहार है। बिहार की साक्षरता दर मात्र 61.80 फीसदी है। साल 2001 में जनगणना के समय तो हालात और भी बुरे थे उस वक्त राज्य की साक्षरता दर मात्र 47 फीसदी ही थी। हालांकि माना जा सकता है कि इन 21-22 सालों में काफी बदलाव आए हैं। स्कूलों में नामांकन दर में भी इजाफा हुआ है लेकिन फिर भी शिक्षा के मामले में बिहार अब भी सबसे निचले पायदान पर है। यहां की स्थिति सुधारने व बदलाव लाने के लिए हम सभी को प्रयास करना होगा।
साल 2001 की जनगणना के अनुसार राज्य स्तर पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की साक्षरता दर क्रमश: 28.5% एवं 28.2% थी। सिर्फ सारण जिला की बात की जाए तो यहां की साक्षरता दर साल 2011 में 65.96 प्रतिशत थी। सारण जिला के तीन अनुमंडल में से एक छपरा भी है, जिसे छपरा जिला (Chapra) के नाम से जाना जाता है। बड़े-बड़े स्कूल, साफ-सुथरे यूनिफार्म में बैग लिए स्कूल जाते बच्चे मगर हर शहर की चकाचौंध के पीछे धुंधलापन भी होता है।
छपरा शहर का 44 नंबर ढाला (44 Number Dhala, Chapra), गरीब बस्ती, धूप व मिट्टी में खेलते बच्चे, ध्यान गया 18 साल की एक लड़की का, जिसका नाम अनिशा (Anisha) है। अनीशा ने गौर किया कि वहां के लोग अपने बच्चों का नामांकन तो सरकारी विद्यालय में करा लेते हैं लेकिन पढ़ने नहीं भेजते।
The Logically से बात करते वक्त अनीशा बताती है कि हर एक सरकारी कॉलेज जहां NSS इकाई है, वह किसी न किसी एक दलित बस्ती को गोद लेता है। अब यह कॉलेज और एनएसएस सदस्यों की जिम्मेदारी होती है कि वहां हर तरह का जागरूकता कार्यक्रम (चाहे वह टीकाकरण से संबंधित हो या साफ सफाई से) चलाकर लोगों को जानकारी प्रदान करें। अनीशा जगदम कॉलेज (Jagdam College Chapra) की छात्रा है। इस कॉलेज ने उत्तरी दहियावां कदम चौक के एक गांव को गोद लिया है। अनीशा भी अपनी टीम के साथ उस गांव के बच्चों को पढ़ाने जाती। इसके अलावा समय-समय पर गांव में चलने वाले शिविर/ कार्यक्रम का हिस्सा भी रहती।
आगे वह कहती है, “2017 में मैं अपने परिवार के साथ 44 नंबर ढाला पर रहने गई। मैंने देखा, वहां एक बस्ती है जहां लेबर क्लास के लोग रहते हैं। कोई दिहाड़ी मजदूर तो कोई समोसा बेचने वाला है। महिलाएं भी कामकाजी है। कोई सब्ज़ी बेचती तो कोई दूसरों के घर में झाडू पोछा करती। उनके बच्चे इधर-उधर घूमते रहते थे। मैंने सोचा उत्तर दहियावां में पढ़ाने और जागरूक करने तो बहुत लोग जा रहे। मेरी ज़रूरत इन बच्चों को है। तब मैंने अपनी एक दोस्त ममता और घरवालों से बात की। जब मैं घर में बताई कि मैं इन बच्चों को पढ़ाना चाहती तो पापा को समझाना थोड़ा मुश्किल रहा लेकिन मां मेरा साथ दी।”
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पहले दिन के अनुभव के बारे में अनीशा(Anisha) कहती है, “पहले दिन मैं और ममता घर-घर जाकर अपने इस मुहिम के बारे में सबसे बात कर रहे थे। हम उन्हें बता रहे थे कि पास वाले पीपल के पेड़ के पास हम आपके बच्चों को पढ़ाने वाले हैं। लोगों ने सवाल किया कि आप कोचिंग खोल रहे हैं??? हमने बताया कि नहीं हम निःशुल्क पढ़ाएंगे। तब लोगों का अगला सवाल था, क्या यह कोई सरकारी योजना है??? नहीं तो आप लोग फ्री में क्यों पढ़ाएंगे???”
लोगों को शिक्षा का महत्त्व समझाने में अनीशा की मां ने भी दोनों दोस्तों की मदद की। तब जाकर अनीशा और ममता (Anisha and Mamta) ने 2 अक्टूबर 2017 गांधी जयंती के दिन से बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। अनीशा और ममता सप्ताह में 5 दिन सोमवार से शुक्रवार बच्चों को अलग-अलग विषय पढ़ाती हैं। सप्ताह के अंत में मौखिक या लिखित टेस्ट लेती है। इस टेस्ट में टॉप 3 बच्चों को अपने पॉकेट मनी से पुरस्कार भी देती हैं।
रविवार के दिन बच्चों को फिजिकली एक्टिव रखने के लिए गेम खेलाती हैं। इस बारे में अनीशा का कहना है, पहले हम पढ़ाने वाली जगह के पास वाली फील्ड में ही छोटे मोटे गेम जैसे- खो खो या पकड़न-पकड़ाई खेलाते थे। फिर जैसे-जैसे लोगों में हमारा विश्वास बनने लगा, हम बच्चों को अभ्यास के लिए उनकी बस्ती से थोड़ी दूर भी ले जाने लगे और कंपटीशन में पार्टिसिपेट कराने लगे। हम उन्हें कभी-कभार शहर के चिल्ड्रेन पार्क भी ले जाते हैं।
जब पढ़ाना शुरू किए थे, तब वहां दसवीं क्लास तक की लड़कियां पढ़ती थी जिनका नाम तो सरकारी स्कूल में चल रहा लेकिन पढ़ाई के बारे में कुछ नहीं जानती थी। सामने खड़ा करने पर सही से अपना नाम भी नहीं बता पाती थी। टूटे फूटे शब्दों में (मेरा है नाम यह….) अपना नाम बताती थी। इन लोगों पर ज़्यादा ध्यान देना पड़ा। अब तो पांच साल हो गए हैं। बच्चों में सुधार भी है। अब जो नए और छोटे बच्चे आते, उन पर ज़्यादा मेहनत नहीं करना होता।
हम लोग शिक्षा दे सकते हैं सामान नहीं
पढ़ाई और ज़रूरत के सामान (जैसे – कॉपी पेंसिल) कहां से आते, इस सवाल के जवाब में अनीशा और ममता बताती है:- “हमलोग शिक्षा दे सकते हैं, सामान नहीं। हम ख़ुद अभी स्टूडेंट हैं। अपने पॉकेट मनी से थोड़ा थोड़ा पैसा बचाकर बच्चों का उत्साह बढ़ाने के लिए 3 स्टूडेंट्स को प्राइज में कुछ सामान देते हैं। हमें पढ़ाते हुए पांच साल हो गए हैं। सोशल मीडिया के माध्यम से शहर के लोग अब हमारे बारे में जान गए हैं तो बर्थडे या एनिवर्सरी पर लोग स्टेशनरी के सामान लेकर बच्चों के बीच आते और खुशी से उन्हें बांटते हैं। कभी कभार एनजीओ वाले भी सामान बांटने आते हैं।”
अनीशा और ममता (Anisha and Mamta) दोनों ही राष्ट्रपति से पुरस्कार (NSS President Awarded) प्राप्त कर चुकी हैं। अनीशा 24 September 2019 में प्रेसिडेंट हाउस के दरबार हॉल में पुरस्कृत हुई है तो और ममता साल 2021 में। व्यक्तिगत रूप से अनीशा कथक करती हैं और ममता फुटबॉल खिलाड़ी हैं। अनीशा कत्थक में बिहार का भी प्रतिनिधित्त्व कर चुकी हैं। जिला प्रशासन के लगभग हर कार्यक्रम में अनीशा की प्रस्तुति रहती है। पढ़ाई में भी अवॉर्ड मिले है। 2017 में अनीशा दैनिक जागरण द्वारा आयोजित सपनों को चली छूने निबंध प्रतियोगिता में पूरे सारण में प्रथम स्थान प्राप्त की थी जिसके लिए बिहार के तत्कालीन राज्यपाल रामनाथ कोविंद द्वारा सम्मानित हुई थी।
The Logically अनीशा और ममता दोनों बच्चियों के मुहिम और जज्बे की तारीफ़ करता है।