Tuesday, December 12, 2023

वह बस कंडक्टर जिसने एक अनोखा कार्य किया, अपनी मेहनत से एक अवार्ड विनिंग फ़िल्म बना डाली

जिंदगी यह अवसर हम सबको देती है कि हम अपने आपको आजमाएं और सफलता तक पहुंचें। लेकिन इसके बावजूद बहुत कम लोग ही सफलता हासिल कर पाते हैं। दरअसल जीवन में सफल होना उतना ही कठिन है, जितना किसी बच्चे के लिए कोई नई स्किल सीखना। आज हम बात करेंगे, अमरजीत मैबम (Amarjeet maibam) की, जिसने उस रास्ते को सच नहीं माना जिस पर ज़िंदगी की जद्दोजहद ने इन्हें धकेला था। इन्होंने अपनी किस्मत खुद लिखी अपना रास्ता खुद चुना और आज इनकी एक अलग पहचान है।

‌कौन है अमरजीत मैबम (Amarjeet Maibam)

‌अमरजीत मैबम (Amarjeet Maibam) मणिपुर (Manipur) के राजधानी इम्फाल के रहने वाले हैं। अमर एक बस कांडक्टर थे तथा पहले हाइवे पर उनका घर था। मणिपुर (Manipur) एक लैंडलॉकड राज्य है। वहाँ आम जनजीवन से जुड़ी सभी जरूरतें मुहैया कराने में सबसे बड़ा योगदान होता है उन ट्रक ड्राईवरों का जिनकी ज़िंदगी हाइवे पर दौड़ती रहती है। अमर ने एक फिल्म बनाई जिसका नाम है “हाइवेज़ ऑफ़ लाइफ” (Amar Maibam’s Highways of Life). इस फिल्म में उन ट्रक ड्राईवरों का संघर्ष दिखाया गया है जो “इम्फाल” से “मोरेह” तक का सफर तय कर के यहां के लोगों तक खाना और अन्य ज़रूरी समान पहुंचते हैं। अमर ने ये डॉक्यूमेंटरी फिल्म 5 साल में पूरी की और इस दौरान इन्होंने इस हाइवे को ही अपना घर मान लिया।

Highways of Life by Amarjeet maibam



‌ फिल्म इंडस्ट्री से ही जुड़े है, अमरजीत के पिता

‌अमरजीत के पिता का नाम एमए सिंह (M.A Singh) है, जो कि एक फिल्म मेकर थे। वे इम्फाल के रहने वाले हैं। वे एक ऐसे फिल्म मेकर थे जिन्होंने पुणे के फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट से फिल्म एडिटिंग और निर्देशन की पढ़ाई की। यहां डैनी इनके सहपाठी थे तथा शबाना आज़मी इनकी जूनियर थी। 1975 में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद “सिंह” ने मुंबई में रहते हुए दूरदर्शन में काम किया, लेकिन बाद में अपने सपनों को सच करने के लिए वह मणिपुर लौट आए। 1982 में अमर के पिता की बनाई हुई पहली फिल्म रिलीज़ हुई जिसे 1983 में 31वें नेशनल फिल्म अवार्ड के दौरान बेस्ट फिचर फिल्म इन मणिपुरी लैंग्वेज के अवार्ड से नवाज़ा गया। इस फिल्म की सफलता के बाद अमर के पिता की हिम्मत को और बल मिला। कुछ साल बाद इन्होंने अपनी पहली कलर फिचर फिल्म बनाई, ये मणिपुरी की दूसरी कलर फिल्म थी।

‌पिता से सीख लेकर बुरे वक्त से लड़ना सिखा

‌एक समय जब अमरजीत मिडिल स्कूल के छात्र थे, तब उनके पिता ने उन्हें एक कैमरा दिया और उसे चलाना भी सिखाया। यही वो दौर था जब पिता को देख कर अमर फिल्म मेकर बनने के लिए प्रेरित हुए। अगर अमरजीत ऐसे आगे बढ़ते रहते तो शायद उन्हें बड़ी कामयाबी हासिल होती। एक फिल्म के निर्माण के दौरान अमर के पिता को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा। किसी क्षेत्रीय भाषा की फिल्म में कोई भी निर्माता अपना पैसा नहीं फंसाना चाहता था, अमर के पिता को नेशनल फिल्म डवलपमेंट कार्पोरेशन की तरफ से कुछ सहायता मिली मगर वो काफ़ी नहीं थी। अंत में हार कर एमए सिंह ने अपनी सारी जमा पूंजी और परिवार की सम्पत्ति इस फिल्म में लगा दी। 1993 तक अमर का परिवार दिवालिया हो गया और इसके बाद अमर के जीवन का संघर्ष शुरू हुआ। पिता कमाते थे लेकिन उनकी कमाई से घर का खर्च चलना मुश्किल हो रहा था।

‌संघर्षशील रही अमरजीत की जिदंगी

‌1995 में अमर ने मेट्रिक की पढ़ाई पूरी की थी, उसके बाद उसी साल उन्होंने घर की जिम्मेदारियां अपने कंधे पर उठा लीं। वह एक बस में कंडक्टर के सहायक लग गये। इसके बाद तो अमर की ज़िंदगी इम्फाल से इंडिया म्यानमार सीमा पर स्थित एक शहर मोरेह तक के बीच कटने लागी। फिल्म मेकर बनने का सपना देखने वाला एक बच्चा घर चलाने के लिए बस कंडक्टर बन गए। लेकिन इस बीच जो सबसे अच्छी बात रही वो ये कि अमर ने हार नहीं मानी। उन्होंने इसी हाईवे पर चलते हुए अपनी आगे की पढ़ाई पूरी की, हालांकि ये सब इतना आसान नहीं था। अमर बताते हैं कि मोरेह रोड पर यातायात बिल्कुल आसान नहीं है। सवारियों के अलावा म्यानमार से इम्फाल तक सामान भी लाना होता था जहां अलग अलग तरह के लोगों से पाला पड़ता, बॉर्डर पर पुलिस पूछताछ करती। अमर ने अपने जीवन की इन कठिनाईयों से बहुत कुछ सीखा। एक बार के ट्रिप में अमर और उनके साथियों को तीन दिन इम्फाल में रुकना होता था। इस दौरान अमर अपनी पढ़ाई करते। इसी तरह अमर ने अपनी हाई स्कूल और फिर कॉलेज की पढ़ाई पूरी की।

Amarjeet maibam



‌धीरे-धीरे संभालने लगे जिंदगी

‌2005 में अमर ने अपने पिता के साथ दूरदर्शन के कुछ प्रोग्रामों पर काम किया लेकिन उन्हें निराशा हाथ लगी। वह समझ गये कि उनके काम में अभी वो निखार नहीं आया जिसके दम पर वो अपना सपना पूरा कर सकें। इसी सोच के साथ खुद को बेहतर करने के लिए 2008 में अमर कोलकाता चले गये और यहां इन्होंने कोलकाता फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट में सिनेमेटोग्राफी की पढ़ाई शुरू कर दी। इसके बाद वह कामयाबी हासिल करने लगे।

‌सच होने लगे सपने

‌23 जुलाई 2009 को एक 22 वर्षीय युवक मणिपुर पुलिस द्वारा किए गए फेक एनकाउंटार का शिकार हो गया था । इसी एनकाउंटर में एक गर्भवती महिला को भी गोली लगी थी । इस घटना के बाद लोग सड़कों पर उतार आए । जगह जगह प्रदर्शन होने लगे । अमर हमेशा से ये सोचते थे कि उनकी शूट की गई फिल्में आम जनता की आवाज़ होनी चाहिए जो देश के अन्य लोगों तक पहुंचे । यहां भी अमर ने वही किया । इसी एनकाउंटर पर अमर ने अपनी पहली डॉक्यूमेंटरी फिल्म सिटी ऑफ़ विक्टिम बनाई। फिल्म को नगालैंड फिल्म फ़ैस्टिवल में बेस्ट डॉक्यूमेंटरी फिल्म का अवार्ड मिला। वहीं से उनके जिंदगी के अच्छे दिन शुरू हुआ।


‌5 साल के हाइवेज़ फ़ॉर लाइफ को 52 मिनट का फिल्म बनाया

‌एक बस कंडक्टर के तौर पर अमरजीत हाइवे पर चलने वाले ट्रक ड्राईवरों से रुबरु हुए। अमरजीत ने उनकी ज़िंदगी और उनके संघर्ष को बहुत करीब से देखा और यहीं से उसके मन में हाइवेज़ फ़ॉर लाइफ बनाने का खयाल आया। इस फिल्म को शूट करते हुए अमर को जेल भी जाना पड़ा। पांच साल उसे इस हाइवे पर और गुज़ारने पड़े। इन पांच सालों को निचोड़ कर अमर ने 52 मिनट की वो फिल्म बनाई जो ट्रक ड्राईवरों के सच्चे संघर्ष को बयान करती है।

वीडियो में देखें Highways of life Film का हिस्सा



‌अमरजीत की मेहनत रंग लाई

‌अपने 5 साल के मेहनत के बदौलत अमरजीत ने कामयाबी हासिल की। उनकी फिल्म ढाका में हुए 8वें लिबरेशन डॉकफेस्ट बांग्लादेश जैसे इंटरनेशनल कंपटीशन में बेस्ट फिल्म का अवार्ड मिला। इस फिल्म फ़ेस्टिवल में कई देशों की कुल 1800 फिल्में सबमिट हुई थीं जिनमें अमरजीत की हाईवेज़ फ़ॉर लाइफ इकलौती भारतीय फिल्म थी और इसने सभी फिल्मों को पीछे छोड़ बेस्ट फिल्म का अवार्ड जीता। इस पांच दिन के फिल्म महोत्सव में बेल्जियम, स्लोवेनिया, जर्मनी, अर्जेंटीना, यूके, इटली और ईरान जैसे देशों से डॉक्यूमेंटरी आई थीं। अमरजीत की फिल्म ने मणिपुर स्टेट फिल्म अवार्ड्स में बेस्ट नॉन फ़ीचर फिल्म, बेस्ट डायरेक्शन, बेस्ट सीनेमेटोग्राफी और बेस्ट एडिटिंग जैसे ढेरों पुरस्कार जीते।

‌ अमरजीत की जिदंगी बहुत संघर्षशील रही है, लेकिन उनकी कामयाबी ने उनके जैसे मेहनत करने वालो के लिए बेसक प्रेरणा बनीं है।