भारत समेत कई देशों की महिलाएं पीरियड पॉवर्टी से जूझ रही हैं. पीरियड पॉवर्टी यानी जब किसी महिला के लिए पीरियड प्रोडक्ट्स खरीदना बजट के बाहर होता है. ये एक ऐसी समस्या है जिस पर अमूमन किसी का ध्यान नहीं जाता लेकिन अब कई देश इसके प्रति सक्रिय होते नज़र आ रहे हैं. हाल ही में स्कॉटलैंड सरकार ने पीरियड प्रोडक्ट्स फ्री में बांटने का फैसला लिया है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक हर साल 8.7 मिलियन पाउंड इस पर खर्च किया जाएगा.
बात करें इंडिया की तो यहां सरकार के साथ-साथ आम नागरिक भी इस समस्या को लेकर काफी जागरूक हैं.
इसका उदाहरण हैं उत्तर प्रदेश के वृंदावन में रहने वाले वैज्ञानिक और उद्यमी महेश खंडेलवाल. जिन्हें माहवारी के बारे में अधिक जानकारी भी नहीं थी लेकिन उन्होंने पीरियड पॉवर्टी से जूझ रही महिलाओं के लिए सस्ते सैनिटरी नैपकिन बनाने का कदम उठाया. हमारा ग्रामीण समाज आज भी पीरियड को लेकर दकियानूसी सोच रखता है. ऐसे में महेश के लिए ये कदम किसी चैलेंज से कम नहीं था!
ऐसे हुई इस पहल की शुरुआत
2014 में महेश की मुलाकात मथुरा की तत्कालीन डीएम बी. चंद्रकला से हुई थी. उस दौरान उन्होंने महेश से ग्रामीण तबके की महिलाओं को माहवारी के दौरान होने वाली पीड़ा के बारे में बात की थी. इसका महेश खंडेलवाल पर काफी गहरा असर हुआ. उन्होंने न सिर्फ बाजार में उपलब्ध सैनिटरी नैपकिन के मुकाबले बेहद सस्ता और पर्यावरण के अनुकूल पैड बनाने की जिम्मेदारी उठाई बल्कि कमजोर तबके की महिलाओं को माहवारी के मुश्किल दिनों में स्वच्छता संबंधी बातों का ध्यान रखने के लिए भी प्रेरित किया. एक पुरुष होकर उन्होंने ऐसी संवेदनशील समस्या के प्रति कदम उठाया था. शुरुआत में उनकी इस मुहिम का मजाक भी उड़ाया गया लेकिन वो अडिग रहें!
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स्मार्ट वर्क के साथ स्मार्ट तकनीक
शुरुआत में उन्होंने मैनुअल तरीके से पैड बनाने की ओर जोर दिया, लेकिन समय के साथ डिमांड बढ़ती गई और आज महेश इसे सेमी-ऑटोमेटिक मशीनों के जरिए बनाते हैं. यह काम ग्रामीण इलाकों में होता है. इसलिए मशीन को इस तरह डिजाइन किया गया है कि मात्र दो घंटे ही बिजली की जरूरत पड़ती है!
एक मीडिया इंटरव्यू उन्होंने बताया था कि ” मशीन की कीमत 5 लाख रुपए है और इसे चलाने में 15 महिलाओं की जरूरत होती है. इससे एक महीने में 50 हजार नैपकिन बनाए जा सकते हैं, जिससे 7.5 लाख तक कमाई होती है. आज यूपी, गुजरात समेत देश के कई हिस्से में 80 मशीनें लगी हुई हैं.”
स्वच्छता के साथ आर्थिक प्रशिक्षण भी जरूरी
महेश की टीम ने आशा कार्यकर्ता और नेहरू युवा केन्द्र की महिला सदस्य भी शामिल है ताकि उनका उत्पाद घर-घर तक पहुँचे सके.इसके साथ ही वो रेड क्रॉस कुटीर उद्योग के साथ मिलकर काम कर रहे हैं, इसके तहत वह महिलाओं को कुटीर उद्योग लगाने, तकनीकों के बारे में प्रशिक्षित करने में मदद करते हैं. साथ ही, महिलाओं को नेशनल रूरल लाइवलीहुड मिशन, मुद्रा योजना, प्रधानमंत्री रोजगार योजना, जैसी कई योजनाओं का लाभ उठाने के बारे में भी जानकारी देते हैं!
कम दाम और इको फ्रेंडली सैनिटरी नैपकिन
रिवर्स इंजीनियरिंग तकनीक के जरिए बनी ये “वी” सेनेटरी नैपकिन इस्तेमाल में लाए जाने के बाद, जैविक खाद के रूप में बदल जाती है.महेश ने मीडिया बताया था कि “शुरूआत में छह पैड वाले पैक की कीमत 10 रुपए थी, जबकि आज इसकी कीमत 15 रुपए है”!
एक और खास बात यह है कि यह सेनेटरी नैपकिन 12 घंटे से लेकर 24 घंटे तक चलते हैं, क्योंकि इसमें बैक्टिरिया नहीं होता है. आमतौर पर, एक मेंस्ट्रुअल साइकिल में महिलाओं को 15-20 सेनेटरी नैपकिन की जरूरत पड़ती है. इस तरह, महिलाओं को खर्च कम आता है!
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 के अनुसार इंडिया में केवल 36% महिलाएं ही सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं. ग्रामीण इलाकों में आर्थिक तंगी या अभाव के कारण उन्हें कपड़े या अन्य चीजों पर निर्भर रहना पड़ता है. इससे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को काफी नुकसान पहुंचता है. ऐसे में सस्ते सैनिटरी नैपकिन मुहैया कराने की यह पहल सराहनीय है. इससे न केवल महिलाएं सबल बन रही बल्कि पर्यावरण को भी कोई हानि नहीं पहुंचती!