हम लोग घर से निकले हुए कचरे को कहीं बाहर फेंक दिया करते हैं। और मंदिरों मैं चढ़ाए हुए फूलों को अगले ही दिन उसे भी कचड़े में ही फेंक दिया जाता है। आजकल हम लोग हर काम में प्लास्टिक के चीजों का काफी इस्तेमाल करते हैं। इस्तेमाल करने के बाद इन प्लास्टिक को हम कचरे में फेंक देते हैं। यह प्लास्टिक न तो सड़ता है और नहीं जलता है। इस प्लास्टिक से पर्यावरण भी दूषित हो जाता है।
कभी आपने सुना है कि घर से निकले हुए कचड़े, मंदिर में चढ़ाए गए फूल, प्लास्टिक के बोतल, तथा पॉलिथीन इन सारे गैर जरूरी चीजों से कमाई का जरिया बन सकता है। जी हां यह सच है इन सब गैरी जरूरी चीजों को एकत्रित करके काफी सारी चीजें इनसे बनाती हैं। और इन सब चीजों से अच्छी कमाई भी हो जाती है।
संतोष सिंह (Santosh Singh) गोरखपुर (Gorakhpur) में पली-बढ़ी हैं। इनके पिता आर्मी में इंजीनियर थे। इसीलिए यह अपने परिवार वालों के साथ शहर में ज्यादा रहती थी। संतोष सिंह (Santosh Singh) की पढ़ाई ज्यादातर इलाहाबाद के केंद्रीय विद्यालय से हुई। इन्होंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन पोस्ट ग्रेजुएशन और इकोनॉमिक्स से पीएचडी किए। संतोष सिंह बताते हैं के लगभग 10 साल हम रिलेशनशिप में रहने के बाद हमने साल 1994 में लव मैरिज शादी कर लिए। शादी के बाद मैं और मेरे हस्बैंड दोनों ही बेरोजगार थे। हमदोनों अपने ससुराल आजमगढ़ में ही रहते थे।
आगे वह बताती हैं कि मेरे पति एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद एक क्लिनिक खोला। 1996 मैं मुझे एक बेटी हुई। जब मेरी बेटी हुई तो मुझे कोई भी काम करने का टाइम नहीं मिलता। मैं अपनी बेटी की वजह से कहीं पढ़ाने भी नहीं जा सकती थी। लेकिन मैं अपने मन में हमेशा यही सोचती थी कि मैं आम महिलाओं की तरह नहीं रहना चाहती हूं। मैं अपनी जिंदगी में कुछ करना चाहती हूं। इसीलिए मैंने कुछ अलग करने के बारे में सोंचा और अंततः हमने आर्ट एंड क्राफ्ट के पैशन को निखारने के बारे में सोचने लगी।
वे बताती हैं कि 1997 में मैंने साज फाउंडेशन की शुरुआत की। इस फाउंडेशन के तहत हमने बच्चों को आर्ट एंड क्राफ्ट की क्लासेस देना शुरू कर दिया। हम अपने बच्चे को अपने घर में ही क्लासेज देते थे। इसके लिए हमें कहीं बाहर नहीं जाना पड़ता था। वह कहती हैं कि जब मैंने इस फाउंडेशन के शुरुआत की तो शुरुआती दौर में मुझे काफी संघर्ष करना पड़ा। स्टार्टिंग में सिर्फ एक ही बच्ची मेरे क्लास में आती थी और मैंने शुरुआत में इसी एक बच्चे को पूरी मेहनत और लगन से सिखाने लगी लेकिन 3 महीने के बाद हमारे पास लगभग 75 बच्चे हो गए और हमारा फाउंडेशन काफी अच्छा चलने लगा
इन्होंने बताया कि 1999 में मेरी दूसरी बेटी का जन्म हो गया तथा मेरे पति को सरकारी नौकरी लग गई और वह डॉक्टर बन गए। इसके बाद मैंने तय किया कि अब हम अपने इस फाउंडेशन को और भी अच्छे तरीके से चला लेंगे। इसके बाद मैंने संघर्षशील महिलाओं बच्चियों को हस्तशिल्प सिखाने का काम स्टार्ट कर दिया। मैं इन महिलाओं से और बच्चियों से फीस नहीं लेती थी। मैंने इन महिलाओं को अलग-अलग तरह का काम सिखाया। मेरे पास 15 महिलाएं ट्रेनर हैं। जब इन लोगों ने मेरे सिखाए हुए कामों को अच्छी तरह से सीख लिए तो मैंने इन महिलाओं के द्वारा बना हुआ सामान को बाजार में जाकर बेच दिया। उस सामान से जो मुझे पैसे मिले वह मैंने इन महिलाओं में बांट दिए।
संतोष बताती हैं कि हम अपने घर से निकले हुए कचरे को बाहर नहीं फेंकते बल्कि उस कचरे के क्रिएटिव को उपयोग करते हैं। उस कचरे से हम घास की डालियां, कतरन से ड्रेसेस प्लास्टिक की बोतल से मूर्तियां, मंदिर में चढ़े फूलों से रंग, गोबर की मूर्तियां और पॉलिथीन से बास्केट बनाते हैं। यह बताती हैं कि हम जो गुलाल लगाते हैं उसे हम फूलों और मुल्तानी मिट्टी से तैयार करते हैं। और अगर यह गुलाल बाद में बच जाता है। तो इसे फेस पैक की तरह आप इस्तेमाल कर सकते हैं। संतोष कहते हैं कि हम कचरे को कमाई में बदलने का काम करते हैं। और जो भी कचरा हमारे पर्यावरण को दूषित कर रहा है। उस कचरे को हम दोबारा क्रिएटिवली उपयोग करते हैं।
संतोष बताती हैं कि मेरे इस फाउंडेशन को चलाने में मेरे पति काफी सहयोग करते हैं। मैं महिलाओं को यही बताती हूं कि आप खुद आत्मनिर्भर बनो अपना हुनर खुद में तलाश करो अपनी एक पहचान बनाओ। उन्होंने कहा कि मेरे पास जितने भी ट्रेनर हैं। वह संघर्षशील और आत्मनिर्भर हैं। आज यह सभी ट्रेनर महीने का 30 से 35 हजार रुपए तक की कमाई कर रहे हैं।
उन सभी महिलाओं के लिए यह प्रेरणा है की अगर अपने जीवन में कुछ करना चाहती या कुछ बनना चाहती हैं। तो उन्हें संघर्ष के साथ-साथ कामों में लगन होना चाहिए। और खुद को आत्मनिर्भर बनाना चाहिए। फिर वह सफलता की ऊंचाई तक पहुंच जाएंगे।