गांव को भारत का दिल समझा जाता है जहाँ से सनातन और संस्कृति की झलक पूरे राष्ट्र को भतृप्रेम में जोड़े रखने का काम करती है ।
भारत की 70% आबादी गांव में रहते हुए केवल देश को ही नही बल्कि विश्व के अलग अलग हिस्सों का पेट भरने का काम करती है जी हाँ , हम सबका पेट भरनेवाले अन्नदाताओं की भूमि गांव ही होती है । वैसे तो सभी गांव एक जैसे ही होते हैं जहां प्रेम , भाईचारा और आपसी सद्भाव का नमूना देखने को मिल सकता है । लेकिन दूरी अनुसार बिहार के अलग अलग गाँव मे विभिन्न संस्कृति को देखा जा सकता है । कहीं की भाषा आपका मन मोह लेगी तो कहीं का चालढाल , कहीं के आवभगत को आप दिल से नही निकाल पाएंगे तो कहीं का प्रेम आपको सरोबर कर देगा ।
मैंने अपना बचपन इन्ही गांवों की पगडंडियों पे बिताई है , जहां की मिट्टी मुझे हमेशा अपनी ओर खींचती है । यहां का माहौल इतना सुखद और भाईचारा वाला की , कोई भी किसी के बच्चे को प्यार से पुचकार सकता है , गलती करते दिखने पर कोई भी किसी को डांट देता है । ऐसा लगता है जैसे सब अपने हैं । सन 1992 में मेरा जन्म छपरा जिले के ‘चोरौवा’ गांव में हुआ । बचपन की धूमिल यादों को अगर याद करूँ तो मुझे केवल प्रेम ही दिखता है । बचपन से ही अपने बाबूजी के साथ मैं चेंवर (खेत) मे जाता था , अपना फसल देखने । उस समय शायद मैं उस अनुभूति को नही समझ पाया था , लेकिन आज वह गर्व मैं महसूस कर सकता हूँ जो कभी मेरे बाबूजी महसूस करते थे । हमे धान के फसल का कटने के इंतज़ार रहता था । जब धान का बोझा खलिहान में रखा जाता था तो हमारे लिए तो मानो मज़े वाले दिन आ जाते थे , हम दिनभर अपने दोस्तों के साथ लुकाछिपी का खेल खेलते रहते थे । उस समय का खेल आज के खेल से बहुत ही अलग था , आज बच्चे मोबाइल पर लगे रहते हैं , किसी को किसी से मतलब नही रहता । लेकिन हमारे बचपन मे पूरे गांव के बच्चे इकठ्ठा हो जाते थे और हमारा खेल शुरू हो जाता था ।
दिनभर मिट्टी में रहना , कुछ भी कहा लेना , मां से डांट सुनना , बाबूजी के हांथो कभी कभी पीट जाना , इन सबके बीच का वह बचपन तनावमुक्त था ।
इसके साथ ही गांव से मेरी कुछ शिकायते भी रही हैं , यूँ कहूँ तो शिकायते गांव से नही बल्कि सरकार से रही हैं कि हमारे बचपन को एक बेहतर इंसान में ढलने के लिए शिक्षा की व्यवस्था बहुत ही दयनीय थी ।
मैं चोकर का बोरा लिए स्कूल जाता था , जिसे जमीन पर बिछाकर हम बैठ जाते थे । मास्टरसाहब पढ़ाते कम ,मारते ज़्यादा थे । आधुनिकता के नाम पर विद्यालय में ना ही पुस्तकालय था और ना ही पढ़ने का कोई और साधन । हां एक बात जो उस समय की सबसे खूबसूरत थी , हमें घर और विद्यालय , दोनों जगह संस्कार अच्छे मिले । आज भी गांव का वही संस्कार हमे दूसरो के प्रति झुकना सिखाता है ।
लेकिन 2020 के गांव में मैं बहुत सारे बदलाव देख रहा हूँ । हमलोग भी आधुनिकरण के बाज़ारीकरण के तरफ मुड़ रहे हैं । गांव का वह संस्कार मुझे धूमिल होते दिखता है जब कोई छोटा बच्चा किसी बड़े के सामने झुकने में संकोच करता है । रोजगार का अवसर तलाशने के लिए बहुत सारे लोग गांव से पलायन करने का रास्ता अपना चुके हैं , जो बहुत कम ही अपनी जमीन पर आ पाते हैं । शहरीकरण से हम इतना प्रभावित हो चुके हैं कि गांव छोड़कर शहर में ही रह जाते हैं । लेकिन आज भी मेरे जैसे बहुत लोग हैं जो गांव के लिए जीते हैं और गांव में ही कुछ करने का फैसला लेते हैं ।
गाँव जड़ है और यहाँ की जमीन से इश्क़ है । मेरी यह तम्मन्ना है कि इसी भूमि पर अपनी पूरी ज़िंदगी बिताऊं और यहीं राख बन जाऊं ।