भारत गाँवों का देश है। गाँवों में भारतीय संस्कृति के दर्शन होते हैं। वर्ष 2019 में आई रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कुल 664,369 गांव हैं। जिसमें देश की आबादी का लगभग 69% हिस्सा गांवों में बसता है। आज भी हर गाँव में हर तरह की सुविधा उपलब्ध नहीं है। फिर भी गाँव की तुलना में शहरों पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। जबकि गांव जितना विकास करेंगे उतना हीं भारत बढ़ेगा।
हमारे देश में बहुत से ऐसे गाँव हैं जहा पे आज भी जरूरत की सारी सुख-सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। परंतु उसके सुधार के लिए कोई भी पहल नहीं हो रहा। वहां के लोग आज भी आजादी से पहले वाली जिंदगी व्यतीत कर रहे हैं। तो वही कुछ ऐसे भी गाँव हैं जिन्होंने बिना किसी की मदद के अपनी पहचान बनाई हैं और पूरे देश को आत्मनिर्भर बनाने का सबक भी दिया है। आज हम कुछ ऐसे ही गाँव की बात करेंगे जिन्होंने एक जुट हो कर एक मिसाल कायम किया है।
- हिवारे गाँव
हिवारे महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त गांवों में आता है। पहले इस गाँव की हालात बहुत बुरी थी। यहां की स्थिति इतनी खराब थी की लातूर में सूखे में 25 लाख लीटर पानी ट्रेन से पहुंचाया गया था, परंतु हिवारे गाँव के लोग पानी की कीमत को जानते हैं उसे स्टोर करके रखते हैं, जिसकी वजह से हिवारे गाँव में कभी पानी की कमी नहीं होती।
हिवारे गाँव के सरपंच करते हैं वहां के लोगों को जागरुक
हिवारे गाँव के लोगों का इतना जागरूक होने के पीछे वहा के सरपंच का हाथ है। वहां के सरपंच का नाम पोपटराव पवार है। पोपटराव पवार के सरपंच बनाने से पहले मतलब 20-25 साल पहले लोग इतना जागरूक नहीं थे परंतु पवार के सरपंच बनाने के बाद उन्होंने इस गाँव को हीं बदल दिया। उन्होंने सबसे पहले सभी शराब के ठेके बंद करा दिए जिसमें 22 शराब के ठेके बंद करा दिए गए थे।
पोपटराव पवार ने फिर कभी इस गांव में ना राजनीति आने दिए और ना कभी शराब। पवार ने इस गाँव को बदलते हुए 94 तालाब तथा लगभग 300 कूएं का भी निर्माण किया। इसकी वजह से हिवारे गाँव में कभी पानी की कमी नहीं होती। हिवारे गाँव में पवार के आने के बाद दूध के उत्पादन मे भी बहुत बढ़ोतरी हुई है। साल 1990 तक यह गांव प्रतिदिन सिर्फ 150 लीटर दूध का उत्पादन करता था, परंतु अब यह बढ़ कर 4000 लीटर हो गया है।
बस इतना हीं नहीं यहां की सबसे खास बात ये हैं कि वर्ष 1995 तक हिवारे गाँव में 180 में से 168 परिवार गरीबी रेखा के नीचे था, परंतु अब इस गांव में 80 करोड़पति हैं। अगर इन करोड़पतियो की बात छोङ भी दिया जाए तो यहां की आम लोगों की आय 30 हजार रुपये महीना है। इसलिए इस गाँव को देश का सबसे अमीर गांव माना जाता है।
2. केरल के पौथानिक्कड़ गांव
गाँव की बहुत सारी कमियों के बीच सबसे बड़ी कमी साक्षरता की है। अच्छी शिक्षा उपलब्ध ना होने के कारण हमारे आने वाले भविष्य भी प्रभावित होती है। आज भी शहरों के मुकाबले गांवों का साक्षरता दर बहुत कम है। आज हम एक ऐसे हीं गाँव की बात करेंगे जो अपने इस कमी को समझते हुए शिक्षा को बेहतर करने का मार्ग चुना और आज पौथानिक्कड़ गांव में साक्षरता दर 100% है।
केरल के पौथानिक्कड़ गांव में अच्छी शिक्षा प्राप्त करने के लिये प्राइमरी स्कूल, हाईस्कूल, इंटर कॉलेज उपलब्ध हैं। इसके फलस्वरूप अब पौथानिक्कड़ गांव में हर निवासी पढ़ा लिखा है। 2001 की जनगणना के अनुसार पौथानिक्कड़ गांव की कुल जनसंख्या 17563 थी, और आज ये सभी लोग शिक्षित हैं।
पौथानिक्कड़ गाँव भारत का पहला ऐसा गांव है जहां साक्षरता दर 100% हैं। अगर भारत का हर गाँव पौथानिक्कड़ गाँव जैसा हो जाए तो भारत पुनः विश्वगुरू बन सकता है इसलिए हर गाँव को पौथानिक्कड़ गाँव से सीख लेते हुए उससे बेहतर करने की जरूरत है।
3. पुंसारी गाँव
आम-तौर पर हर तकनीकी सुविधाएं गाँव में उपलब्ध नहीं होती हैं कुछ तो ऐसे गाँव भी हैं जहा मोबाइल नेटवर्क तक नहीं रहती परंतु आज हम एक ऐसे गाँव की बात करेंगे जो दूसरे गाँव के लिए मिसाल के रूप में है। गुजरात के पुंसारी गांव की तकनीकी सुविधाएं ऐसी हैं कि अक्सर ऐसा शहरों में भी नहीं मिलता। इस गांव में बिजली, पानी और जल निकासी की आम सुविधाओं के अलावा वाईफाई, सीसीटीवी और कम्यूटर सेवाएं भी हैं।
पुंसारी गाँव की तकनीकी सुविधाएं के लिए कोई फंड नहीं मिल रहा। वहां के लोगों ने सरकार से मिली सुविधाओं का सही उपयोग कर इस गाँव को इतना बेहतर बनाया है। पुंसारी गाँव की कुल आबादी 6 हजार है। वहां हर घर में बिजली और पानी की सुविधा है। इतना हीं नहीं पूरे गांव में वाईफाई की सुविधा भी मौजूद है। इस गाँव में वाटर प्यूरीफायर की व्यवस्था भी है। सिर्फ इतना हीं नहीं अच्छी शिक्षा के लिए प्राइमरी स्कूलों में कम्प्यूटर की व्यवस्था भी की गई है।
पुंसारी गाँव के सरपंच हिमांशु पटेल ( Himanshu Patel) ने इस गाँव को किसी भी पहलू से शहर से पीछे नहीं होने दिया है। उन्होंने अपनी सूझबूझ से नामुमकिन को भी मुमकिन कर दिखाया है।
4. मावल्यान्नांग गाँव
पर्यावरण हमें ईश्वर के द्वारा दिया गया उपहार हैं। पर्यावरण का हमारे जीवन में बहुत अहम भूमिका है।
हमें अपने आस-पास साफ-सफाई करते रहना चाहिए परंतु यह बोलना जितना आसान है इसे करना उतना हीं मुश्किल। इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा स्वच्छता अभियान भी चलाया जा रहा है। जिससे लोगों स्वच्छता की अहमियत को समझ सकें। आज हम एक ऐसे ही गाँव के बारे में जानेंगे जो हर एक बड़े शहर के लिए मिसाल हैं।
भारत बांग्लादेश बार्डर से 90 किमी की दूरी पर स्थित मेघालय का मावल्यान्नांग गांव एक ऐसा गाँव हैं जो सिर्फ अपने ही देश में नहीं बल्कि पूरे एशिया में साफ-सफाई के मामले में सबसे आगे है। इस गाँव को वर्ष 2003 में एशिया का तथा वर्ष 2005 में भारत का सबसे स्वच्छ गांव होने का खिताब मिल चुका है। हम अपने आस-पास स्वच्छ तब ही रख सकते हैं जब हम उसके लाभ और हानि को समझ सकें। मावल्यान्नांग गांव का हर मनुष्य इतना पढ़ा-लिखा जरूर है कि वह स्वच्छता को समझ सके।
मावल्यान्नांग गाँव मे कुल 95 परिवार रहते हैं। इन परिवारों ने एक जुट हो कर स्वच्छता की जिम्मदारी उठाई हैं। जहाँ शहरों की स्वच्छता पर करोड़ों खर्च हो रहे हैं वहा यह गाँव बिना किसी की मदद का इंतजार किए खुद हीं स्वच्छता की मुहीम को आगे बढ़ा रहे हैं। मावल्यान्नांग गाँव में हर जगह पर बांस के बने डस्टबिन भी बना रखे हैं। इनमें जमा होने वाला कूड़ा को ये लोग खेतों में खाद के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
मावल्यान्नांग गाँव में आजीविका के लिए वहां के लोग सुपारी की खेती करते हैं। जिस सुपारी को खा कर लोग गंदगी को बढ़ाते हैं, उसी की फसल उगाने वाला गाँव एशिया का सबसे स्वच्छ गाँव है। इस गाँव की खास बात यह हैं कि यहाँ बीड़ी सिगरेट नहीं पी सकते। हमें मावल्यान्नांग गाँव जैसे छोटे गाँव से सीखते हुए स्वच्छता के महत्व को समझना वह अनुकरण करना चाहिए।
5. पिपलांत्री गाँव
राजस्थान का जिला राजसमंद का पिपलांत्री गाँव जो कुछ साल पहले तक खनन की मुसीबत झेल रहा था।मगर उस गाँव के सरपंच श्याम सुंदर पालीवाल ने इस गाँव का नक्शा हीं बदल दिया। हम श्याम सुंदर पालीवाल को कौन बनेगा करोड़पति के सेट से जानते हैं, उन्हें अमिताभ बच्चन के साथ देख चुके हैं। पहले
पिपलांत्री गाँव में खनन के कारण बंजर जमीनें थी, परंतु अब इस गाँव में हरियाली दिखती है।
पिपलांत्री गाँव में बेटियो तथा पेड़-पौधे का अलग ही संबंध हैं। यहाँ ये परंपरा बन चुका है कि हर बेटी के जन्म के साथ गांव वाले 111 पेड़ लगाते हैं और बेटियों के साथ-साथ पेड़-पौधे का भी ख्याल रखते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं यहाँ की बेटियां इन पेड़ों को भाई मान कर राखी भी बांधती हैं।
पिपलांत्री गाँव की कुल आबादी 2000 लोगों की हैं। इतनी कम आबादी वाले गाँव में सिर्फ एक परंपरा की वजह से 4 लाख से ज्यादा पेड़ हैं। यह असंभ को संभव करने सरपंच श्याम सुंदर पालीवाल के अनुसार उन्होंने इस गाँव के लिए कुछ खास नहीं किया, बस जो फंड और योजनाएं गांव और यहां के लोगों के लिए आती रहीं उनका सही उपयोग किया।
श्याम सुंदर पालीवाल अब इस गाँव की सरपंच नहीं हैं, परंतु देश के कई सरपंच इनसे आज भी सीखने आते क्यूंकि सिर्फ इनके सूझबूझ से ही पिपलांत्री गाँव मे इतनी हरियाली है। यहां अब देश के ही नहीं बल्कि विदेशों से पर्यटक भी घूमने आते हैं।
6. धरनई गांव
शहर के मुकाबले गाँव में बहुत से ऐसी असुविधाएँ हैं जिनका सामना करना वहा के लोगों के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। बिना बिजली के हम अपनी जीवन का कल्पना भी नहीं कर सकते। आजादी के इतने साल बाद बिहार के जहानाबाद में स्थित धरनई गांव में शाम होते ही लोगों के घरों में बल्ब नहीं बल्कि दीप बाती जला करती थी। बिजली यहां तक पहुंची ही नहीं थी। आज भी ऐसे बहुत से गांव हैं जो अंधेरे में जी रहे हैं।
धरनई गांव के लोगो ने हार नहीं मानी को उन्होंने दूसरों के आसरे बैठने से अच्छा समझा खुद प्रयास करना। धरनई गांव के लोगों ने अंतर्राष्ट्रीय संस्थान ग्रीनपीस, बेसिक्स और सीड के संयुक्त प्रयास से यहां सोलर पावर माइक्रो ग्रिड लगवाया। उसके बाद इनके प्रयास के फलस्वरूप यहां के 450 घर तथा 50 दुकानों में बिजली आने लगी। इतना ही नहीं इस गाँव के लोगों के प्रयास से 10 सोलर सिंचाई पम्प, स्ट्रीट लाइटें, दो स्कूल और एक स्वास्थ्य केंद्र की बिजली की आपूर्ति भी इसी सोलर ग्रिड से होती हैं। सिर्फ अपने गाँव की हीं नहीं बल्कि अपने दो पड़ोसी गांवों विशुनपुर और झिटकोरिया में भी बिजली पहुंचाता हैं। धरनई गांव का यह कार्य से पूरे देश को सीख लेनी चाहिए। हमे दूसरों के भरोसे नहीं बैठना चाहिए खुद हीं खुद प्रयास करना चाहिए।
7. मट्टूर गाँव
भारत संस्कृतियों का देश हैं। देव भाषा कही जाने वाली संस्कृत हमारे देश की देन है। यह हमारी देश की पहचान है, परंतु हम इस धरोहर को संभाल नहीं पा रहे। यह हमारे लिए बहुत शर्मिंदगी की बात है। पूरे देश में ये भाषा एक फीसदी से भी कम बोली जाती है। परंतु केरल के मट्टूर गाँव एक ऐसा गाँव हैं जो अपने संस्कृति को भूला नहीं है। वहाँ के लोग पिछले दस सालों से आपस में संस्कृत में ही बातचीत कर रहे हैं। इस गांव को संस्कृत गांव कहा जाता है।
मट्टूर गाँव ने यह सिद्ध कर दिया हैं कि संस्कृत से गणित और तर्कशास्त्र का ज्ञान बढ़ता हैं, यह बात विशेषज्ञ भी मानते हैं। ऐसा माना जाता हैं कि इससे इन दोनों विषय पर इंसान की समझ बढ़ती है। इस बात की पुष्टि इस बात से होती है कि जब से यहाँ के लोग संस्कृत सीखने लगे तब से यहां के युवा इंजीनियरिंग के प्रति विशेष ध्यान देते हैं। यह गाँव इसलिए भी प्रसिद्ध है कि यहाँ हर घर से एक ना एक सदस्य इंजीनियर है। मट्टूर गाँव में 10 साल की आयु से ही बच्चों को संस्कृत और वेदों का ज्ञान दिया जाता है। जिससे समय पर उन्हें संस्कृत का पूरा ज्ञान मिल सके। संस्कृत ज्ञानियों की भाषा है। हमें इस गाँव से सीख लेते हुए कभी अपनी संस्कृति को भूलना नहीं चाहिए।
8. मेंढा लेखा गांव
आदिवासियों का जीवन हमारे जीवन से पूरा अलग है। जितना अधिकार हमे मिलता है उतना आदिवासियों को नहीं मिलता, परंतु वो अपने अधिकारों की लड़ाई नहीं छोड़ते। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में स्थित मेंढा लेखा गांव एक ऐसा गांव हैं जो अपने अधिकारों के लिए लड़ा भी और जीता भी। यह अन्य गाँव के लिए मिसाल है। यह भारत का पहला आदिवासी गांव है जिसे वनों पर स्वामित्व का पूर्ण अधिकार प्राप्त हुआ।
उसके बाद इस मेंढा लेखा गांव ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा केवल बांस का पैदावार कर के ये गांव हर साल एक करोड़ से ज़्यादा की कमाई करता है। इस गांव में घुसते हीं आपको हर जगह एक नारा लिखा मिलेगा ‘दिल्ली मुंबई में हमारी सरकार, हमारे गांव में हम ही सरकार और कहीं ना कहीं ये सही भी है, क्योंकि यहां के सारे नियम यहां के लोग और पंच हीं तय करते हैं।
पहले यहां के लोग योजनाएं बनाते हैं, फिर उन्हें सरकार तक पहुंचाया जाता है। सरकार से सहायता मिली तो ठीक वर्ना ये लोग अपने कोष में जमा पैसों से काम शुरू कर देते हैं। वह सरकार की दी गई मदद के इंतजार में नहीं बैठते। मेंढा लेखा गांव से सीख लेते हुआ देश के हर गांव को इसी तरह से आत्मनिर्भर होने की जरूरत है।
9. कोकरेबेल्लूर गाँव
मनुष्य अपने साधन को बेहतर करने के प्रयास में पेड़ों की कटाई कर रहा है जो पर्यावरण के लिए बड़ी समस्या बन चुकी हैं। इसका सबसे बड़ा असर पक्षियों की प्रजाति पङा है। उसे बचाने के लिये कहा तो बहुत कुछ जाता है परंतु उसके लिए प्रयास नहीं की जाती। ऐसे हालात में हमे बेंगलूरु के इस गांव कोकरेबेल्लूर से सीख लेनी चाहिए।
जो पक्षी की प्रजातियां पूरी तरह से विलुप्त हो रही हैं वे यहां बड़े आराम से अपको दिख जाएंगे। इन्हें यहां कोई खतरा नहीं हैं। यहां के लोग इन पक्षी का पूरा ख्याल रखते हैं, अगर कोई पक्षी घायल हो जाए तो उनका इलाज भी इसी गांव में होता हैं। इस गाँव के लोग इन पक्षियों को अपने परिवार का सदस्य मानते हैं और ये पक्षी इस गांव को अपना घर। इसलिए इस गाँव को दुर्लभ पक्षियों का स्वर्ग कहा जाता है।
The Logically इन गाँवों के प्रयासों की सरहाना करता हैं तथा अन्य दूसरे गाँव को भी इन सीख लेकर आत्मनिर्भर बनने की कोशिश करने की अपील करता है।