Monday, December 11, 2023

ग्लोकोज़ के वेस्ट बॉटल्स की मदद से ड्रिप सिंचाई प्रणाली वाली खेती विकसित कर मुनाफे कमा रहा यह किसान

भारत एक कृषि प्रधान देश है। लगभग 60% लोग यहां प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर हैं और कृषि ही इनके प्राथमिक आय का जरिया है। लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि यहां किसानों की वर्तमान स्थिति बहुत गंभीर है। हालांकि, भारत के अधिकांश क्षेत्र में कम वर्षा और सदियों पुरानी खेती की तकनीक भी इसके लिए उत्तरदायी है। कुछ किसानों ने सिंचाई सुविधाओं की उपलब्धता की कमी के कारण भी कई नुकसान उठाए हैं। सूखा या पानी की कमी की वजह से फसलों को स्वस्थ्य रखना किसानों के लिए मुश्किल हो जाता है।

कुछ ऐसा ही मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल जिले झाबुआ के किसानों ने अनुभव किया था। अपने फसल को बर्बाद होते हुए देखना किसी भी किसान के लिए अत्यंत ही चिंताजनक विषय है। झाबुआ जिले के एक किसान हैं- रमेश बारिया। पानी की कमी के कारण इनके भूमि की भी उर्वरता ख़त्म हो गई थी। ये अपनी निराशा दूर करना चाहते थे और इन चुनौतियों के बीच बेहतर पैदावार के साथ खेती करने का संकल्प भी चाहते थे।


अपशिष्ट ग्लुकोज़ बोतल का इस्तेमाल

इन्होंने वर्ष 2009-2010 में एनएआईपी (राष्ट्रीय कृषि नवाचार परियोजना) के वैज्ञानिकों से संपर्क किया और उनके मार्गदर्शन में इन्होंने जमीन के एक छोटे से हिस्से में सब्जी की खेती शुरू की। इन्होंने करेला और लौकी उगाना शुरू किया। जल्द ही इन्होंने एक छोटी नर्सरी भी स्थापित की। हालांकि, शुरुआत में इन्होंने मानसून में देरी के कारण पानी की भारी कमी का अनुभव किया। यह देखते हुए कि फसल मर सकती है, रमेश ने एनएआईपी की मदद फिर से मांगी। विशेषज्ञों ने सुझाव दिया कि वे अपशिष्ट ग्लूकोज की पानी की बोतलों की मदद से ड्रिप सिंचाई तकनीक अपनाएं। रमेश ने 20 रुपये प्रति किलोग्राम से बेकार ग्लूकोज की बोतलों को खरीदा और उसका इस्तेमाल खेती में किया।

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बेकार ग्लूकोज की बोतलों से ड्रिप सिंचाई प्रणाली का तरीक़ा

Ramesh Bariya ने सबसे पहले पानी के लिए एक इनलेट बनाने के लिए बोतल के ऊपरी आधे हिस्से को काट दिया। इसके बाद उन बोतलों को पौधों के पास लटका दिया। अपने बच्चों को हर सुबह स्कूल जाने से पहले उन बोतलों को भरने को कहा। ड्रिप द्वारा पानी की आपूर्ति के लिए नियामक का उपयोग किया। इस प्रकार ड्रिप सिंचाई प्रणाली में स्थापित इन बेकार ग्लूकोज बोतलों का उपयोग कर के रमेश ने अपनी फसल को सूखने से बचाया और पर्यावरण को भी संरक्षित किया।

मानसून में देरी होने के बाद भी रमेश अपनी फसलों के लिए इसी तकनीक का उपयोग करते हुए, सीजन के अंत में 0.1-हेक्टेयर भूमि से 15,200 रुपये का लाभ अर्जित करने में कामयाब रहे। इन्होंने अपने पौधे को पानी की कमी से भी बचाया और अपशिष्ट उत्पादों का सबसे अच्छा उपयोग भी किया।

चुंकि इस तकनीक में लागत ज़्यादा नहीं है। इसलिए जल्द ही पूरे जिले में फैल गई और कई अन्य किसानों द्वारा भी अपनाई गई।

मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल जिले के इस व्यक्ति ने ड्रिप सिंचाई का यह एक अलग ही स्तर तैयार किया। इसलिए रमेश बारिया को जिला प्रशासन और मध्य प्रदेश के कृषि मंत्री की ओर से प्रशंसा पत्र भी प्रदान किया गया। The Logically  Ramesh Bariya के हार नहीं मानने के जज्बे को सलाम करता है।

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