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पिता दिव्यांग हैं, माँ दूसरों के घर मे बर्तन धोकर घर चलाती हैं, बेटी ने रास्ट्रीय स्तर का अर्जुन अवार्ड जीतकर नाम रौशन किया

माता-पिता अपने बच्चों के लिये क्या कुछ नहीं करतें हैं। अपने बच्चें को सफलता की सीढियों तक पहुंचाने के लिये अपनी पूरी ज़िंदगी लगा देते हैं। बच्चें भी अपने मां-बाप के मेहनत का फल उनको देते हैं और ऐसा मुकाम हासिल करतें हैं जिसे देख माता-पिता के खुशियों का ठिकाना नहीं रहता।

आज हम एक ऐसी लड़की के बारें में बताने जा रहें हैं जिसके सपने पूरा करने के लिये उसकी मां ने दूसरों के घर में जाकर बर्तन धोने का काम किया है। ताकी उसकी बेटी अपने पैरों पर खड़ी हो सकें और सफलता प्राप्त कर सकें।

सारिका काले (Sarika Kale) उस्म्मानाबाद की रहनेवाली हैं। सारिका की उम्र 27 वर्ष है। इनका बचपन बहुत ही कष्टमय तरीके से गुजरा है। सारिका काले के पिता विकलांग हैं। पिता के दिव्यांग होने के वजह से घर का सारा बोझ सारिका के दादा जी और दादी जी के धनोपार्जन पर आधारित था। इन्सान के सर पर जब परिवार का बोझ आता है तो इन्सान सबकुछ करने लगता है। ऐसे में सारिका की मां ने अपने घर-परिवार की सहायता हो सके इसलिये उन्होनें घर पर ही कपड़ा सिलने के काम शुरु किया। जब घर-परिवार की देखभाल सिलाई से भी नहीं हो सका तब सारिका की मां दूसरों के घरों जाकर बर्तन धोने का काम करने लगी।

सारिका काले (Sarika Kale) की उम्र उस वक्त सिर्फ 13 वर्ष थी जब वह अपने किसी संबंधी के साथ खो-खो के मैदान में गईं। वहां लोगों को खो-खो खेलते हुए देख सारिका का मन उस खेल में लग गया। कहतें हैं, न.. इन्सान को अपने जीवन का लक्ष्य कहीं से भी किसी भी रूप में समझ आ जाता है और वह उस लक्ष्य को हासिल करने के रास्तों पर चलने लगता हैं। सारिका काले को भी खो-खो खेल देखकर प्रेरणा मिली। इस प्रेरणा से सरिका ने खो-खो खेलना शुरु कर दिया। सारिका के परिवारवालों ने जब देखा कि उसका मन खेल में लग रहा है और उसके अंदर इस खेल को लेकर एक जोश और जज्बा है तो उन्होनें सारिका के जज्बे को देखतें हुए उसका पूरा साथ दिया।

“मेहनत अगर सच्चे मन और लगन से किया जायें तो सफलता ज़रुर मिलती है।” सरिका की मेहनत ने अपना असर दिखाना शुरु कर दिया। वह धीरे-धीरे सफलता की ऊंचाइयों को छूने लगी। सारिका का महाराष्ट्र टीम में चुनाव हो गया और वह नेशनल टीम का हिस्सा हो गईं। 2016 में सारिका ने भारतीय खो-खो टीम को 12वें दक्षिण एशियाई गेम्स में गोल्ड जीती। सारिका भारतीय खो-खो टीम को गोल्ड मेडल दिलाकर इस देश का और अपने परिवार का नाम जग में रौशन कर दिया।

हम सभी को पता है कि इस वर्ष खेल मंत्रालय के द्वारा 27 खिलाड़ियों को ‘अर्जुन पुरस्कार अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन 27 खिलाड़ियों के लिस्ट में एक नाम सारिका काले का भी है। खो-खो जैसे खेलों को लगभग 2 दशक बाद अवार्ड मिला है। खेल दिवस पर किसी खो-खो खिलाड़ी को 22 साल बाद पहला पुरस्कार मिला है। यह बहुत ही गर्व की बात है। यह “अर्जुन पुरस्कार” से इस साल सारिका को सम्मानित किया गया हैं। सारिका के कोच चंद्राजीत जाधव ने बताया कि सारिका (Sarika) अपने आर्थिक दिक्कतों के वजह से खो-खो खेल को छोड़ना चाहती थी। लेकिन सारिका के परिवार वाले चाहतें थे कि सारिका खो-खो खेलें और इसी में अपना करियर बनाये। घर-परिवार और कोच के समझाने के बाद सारिका फिर से मैदान में खेलने के लिये आ गईं। सारिका को वर्ष 2016 में इंदौर (indaur) में हुयें एशियाई खो-खो चैम्पियनशिप में “प्लेयर ऑफ टूर्नामेंट” के खिताब से नवाजा जा चुका है।

वर्तमान में सारिका काले Maharashtra के ओसमानाबाद (Osmanabad) जिले के तुल्जापुर में खेल अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं।

सरिका काले (Sarika Kale) ने अपने समस्याओं के वजह से कभी भी हताश होकर नहीं बैठी। उन्होंने सब कुछ किया जो वह कर सकती थी। The Logically सारिका काले की इसी बहादुरी और जज्बे को सलाम करता हैं।

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