Wednesday, December 13, 2023

महुआ के फूल और वाइल्ड चावल खाकर करना पड़ता था गुजारा, आज अमेरिका में वैज्ञानिक हैं: प्रेरणा

रामधारी सिंह दिनकर द्वारा लिखी कविता ‘वीर’ की एक बहुत खुबसूरत पंक्ति है, “मानव जब जोर लगाता है पत्थर पानी बन जाता है।”

कई बार परिस्थितयां अनुकूल नहीं होने के कारण मनुष्य अपने निर्धारित लक्ष्य को पाने से पीछे हट जाता है। लेकिन यदि कोई चाहे तो लाख विपत्तियों का सामना करते हुए भी जीवन में कामयाबी को हासिल कर सकता है, क्योंकि सफलता कभी भी सरलता से प्राप्त नहीं होती है। उसे हासिल करने के लिए पूरे तन, मन से कठिन परिश्रम करनी पड़ती है।

कुछ ऐसी ही कहानी है भास्कर हलामी (Scientist Bhaskar Halami) की, जिन्हें कभी दो वक्त की रोटी भी बहुत नसीब से मिलती थी वहीं आज अमेरिका में वैज्ञानिक हैं। इनकी कहानी हर किसी में कुछ हासिल करने के लिए एक नया जज्बा भर देगी।

आदिवासी समुदाय से निकलकर बने अमेरिका में वैज्ञानिक

भास्कर हलामी (Bhaskar Halami) का जन्म महाराष्ट्र (Maharashtra) के गढ़चिरौली के कुर्खेदा तहसील (Kurkheda Tehsil) के चिरचारी (Chirchadi) गांव के एक आदिवासी समुदाय में हुआ था। लेकिन उन्होंने अपनी मेहनत से एक आदिवासी समुदाय और गांव से निकले और विदेश तक एक वैज्ञानिक के रूप में अपनी पहचान बनाई। वर्तमान में वह अमेरिका के मैरीलैंड में Sirnaomics Inc नामक बायोफार्मास्युटिकल कम्पनी के रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट में बतौर सीनियर साइंटिस्ट कार्यरत हैं।

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आसान नहीं था अमेरिका तक का सफर

एक कमजोर आदिवासी परिवार से निकलकर इतना बड़ा मुकाम हासिल करना आसान नहीं था। इस सफलता के लिए भास्कर को कई अलग-अलग परिस्थितयोँ से गुजरना पड़ा था। भास्कर पिछ्ली बातों को याद करते हुए बताते हैं कि, “उन्हें और उनके परिवार को एक ऐसे दौर से गुजरना पड़ा था जब दो वक्त की रोटी भी बहुत नसीब से मिलती थी। उनके माता-पिता भी कभी-कभी सोचते हैं कि उस दौर को उन्होंने गुजारा, उस समय न तो काम था और न पेट भरने के लिए भोजन।”

वाइल्ड चावल और महुआ खाकर भरते थे पेट

भास्कर (Bhaskar Halami) जहां से सम्बंध रखते हैं वहां मानसून के मौसम में जब बारिश होती थी तब कुछ महीने खेती-बाड़ी का काम बन्द हो जाता था। ऐसे में काम नहीं होने के कारण भोजन के लिए बहुत ही मेहनत करनी पड़ती थी। भास्कर ने बताया कि, चिरचारी गांव (Chirchadi Village) में परिवारों को संख्या 400 से 500 है।

इतने लोगों में से 90% लोग महुआ के फूल जोकि पकाकर खाने और पचाने दोनों में आरामदायक होता था उससे अपना पेट भरते थे इसके अलावा वे Parsod या वाइल्ड चावल खाकर भी गुजारा करते थे। दरअसल, चावल के आटे को पानी में उबालते हुए आंच पर पकाया जाता और तब उसे खाया जाता था।

स्कॉलरशिप से की 10वीं तक की पढ़ाई

भास्कर हलामी (Scientist Bhaskar Halami) के पैरंट्स गांव में घरों में काम करते थे और उससे जो आमदनी होती थी उसी से उनके परिवार का गुजारा होता था। उसके बाद एक समय 7वीं तक पढ़ें उनके पिता की कसानकुर तहसील में नौकरी लग गई जिसके बाद उनका पूरा परिवार गांव से वहीं आकर बस गया।

कसानकुर आने के बाद भास्कर मे पहली कक्षा से लेकर चौथी कक्षा तक की पढ़ाई यहीं के एक आश्रम स्कूल से पूरी की। उसके बाद उन्होंने स्कॉलरशिप का परीक्षा दिया जिसमें उन्हें सफलता मिली और उसी स्कॉलरशिप से उन्होंने केलापुर के सरकारी विद्यानिकेटन से मैट्रिक तक की शिक्षा ग्रहण की। हालांकि, भास्कर के पिता ने उनकी पढ़ाई में किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं आने दी।

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MPSC की परीक्षा में भी हुए सफल

दसवीं कक्षा तक पढ़ाई करने के बाद भास्कर ने गढ़चिरौली से B.sc और नागपुर के Institute of Science से M.sc की पढ़ाई पूरी की। पढ़ाई पूरी करने के बाद साल 2003 में उन्हें नागपुर के ही लक्ष्मीनारायण Institute of Technology में असिस्टेंट प्रोफेसर की नौकरी मिल गई। भास्कर यहीं नहीं रुके, उन्होंने MPSC की परीक्षा भी दी और सफल भी रहे।

माता-पिता को दिया सफलता का श्रेय

अच्छी पढाई, असिस्टेंट प्रोफेसर की जॉब, MPSC में सफलता के बावजूद भी उन्हें संतुष्टी नहीं मिली क्योंकि वे शोधकर्ता बनना चाहते थे। इस सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने अमेरिका स्थित मिशिगन टेक्नोलॉज़ी युनिवर्सिटी से PhD की पढ़ाई की। आज वह अमेरिका में ही एक सीनियर साइंटिस्ट के पद पर कार्यरत हैं। अपनी इस अपार सफलता का श्रेय उन्होंने अपने माता-पिता को दिया है।

भास्कर हलामी (Senior Scientist Bhaskar Halami) ने जिस तरह एक आदिवासी गांव से निकलकर अमेरिका में वैज्ञानिक बनने तक का सफर तय किया है वह प्रेरणादायक है। The Logically उन्हें इस सफलता के लिए ढेर सारी बधाई देता है।