गुजरात के कच्छ के रहने वाले 47 वर्षीय धनजीभाई केराई को मात्र 2 दो साल के उम्र में पोलियो हो गया, जिसके कारण वो दिव्यांग हो गए। घर वालों के साथ पड़ोस वालों को भी चिंता सताने लगी कि अब इनका जीवन कैसे व्यतीत होगा पर ये कोई नहीं जानता था कि एक दिन उनका नाम देश के प्रसिद्ध अविष्कारको में शामिल होगा।
धनजीभाई के दोनों पैर और एक हाथ बिल्कुल काम नहीं करने के बावजूद भी शुरू से ही वह खुद पर निर्भर रहना चाहते थे। बचपन में वे कभी स्कूल नहीं गए लेकिन उन्होंने इलेक्ट्रीशियन का काम सीखा और पूरे इलाके के लोग उन्हें किसी भी इलेक्ट्रिक संबंधित काम के लिए बुलाते थे। 15 साल की उम्र तक तो वो अपनी माँ की पीठ पर बैठकर ही सब जगह जाया करते थे। उन्हें अपने काम के लिए कहीं भी जाने के लिए दूसरों का सहारा लेना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था लेकिन वो खुद से चलने मे असमर्थ थे बहुत मुश्किल से 1 मिनट में 3 मीटर चल पाते थे। हमेशा वो सोचते थे कि की ऐसा क्या करें जिससे खुद से कहीं घूम सके। उस समय दिव्यांगों के लिए बहुत कम ही सुविधाएं थी अगर थी भी तो गाँवों में नहीं। इस समस्या से निजात पाने के लिए उन्होंने अपने लिए एक स्कूटर बनाने का प्रयास किया।
धनजीभाई एक पुराने स्कूटर लेकर उसे अपने शरीर के मुताबिक ढालने की कोशिश करने लगे। लोगों को लगता था कि यह कर पाना उनके लिए संभव नहीं है, कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्हें उनपर पूरा भरोसा था और चाहते थे कि धनजीभाई अपने प्रयास में सफ़ल हो। सबसे पहले उन्होंने इस बात पर गौर किया कि उन्हें अपने शरीर के मुताबिक स्कूटर में क्या – क्या चाहिए। उनका दोनों पैर और एक हाथ बिल्कुल भी काम नहीं करता है और उनकी लम्बाई भी लगभग आधा फिट है। उन्हें ऐसा स्कूटर बनाना था जो एक हाथ से चल पाए।
सबसे पहले उन्होंने अपना बैलेंस बनाने के लिए दो पहिया वाहन की जगह चार पहिया बनाया जिसे पीछे के पहिए के साथ जोड़ा, रियर ब्रेक के जगह आसानी से काम करने वाला लीवर लगाया और सीट को भी अपने मुताबिक डिजाइन किया। समान्य सीट के आगे एक और सीट लगाया ताकि वो हैंडल तक पहुंच सके। इस तरह से उन्होंने अपना स्कूटर बना लिया , जिसे पूरा करने में लगभग 6 हजार रुपये और 3-4 महीने का समय लगा।
शुरू में उनके एक दोस्त ने उस स्कूटर को चलाया फिर धनजीभाई ने इसे चलाना शुरू किया। स्कूटर पर उन्हें बैठने के लिए दूसरों का सहारा लेना पड़ता था, कोई भी उन्हें स्कूटर पर बैठाकर गाड़ी स्टार्ट कर देता था। आसानी से वह 60 – 70 किमी प्रति घंटा के रफ्तार से स्कूटर चलाते थे। इस आविष्कार से उनकी दूसरों पर निर्भरता बहुत ज्यादा खत्म हो गई।
धनजीभाई कि इस स्कूटर की सफलता ने गाँव और आस-पास के इलाके में उनकी एक अलग ही पहचान बना दी। आगे वो बिना किसी परेशानी के अपने काम पूरा करने लगे, धीरे धीरे वो इलेक्ट्रॉनिक काम में महारत हासिल कर लिए उनके पूरे इलाके मे किसी के यहां कोई भी इलेक्ट्रॉनिक सामान खराब होता तो लोग इनके पास ही आते। जिससे हर दिन उनकी अपनी थोड़ी कमाई हो जाती इससे उनके परिवार को भी काफी सहारा मिलने लगा।
इनके पास आने वाले लोग दूसरे लोगों को भी इनके काम के बारे में बताने लगे। आगे वो सोचते थे कि उन्हें भी पढ़ना-लिखना सीखना चाहिए, जिसके लिए वो 25 वर्ष की उम्र में प्रौढ़ शिक्षा केंद्र मे दाखिला लिए और धीरे – धीरे वो 12 वीं तक कि पढ़ाई पूरी किए।
धनजीभाई और उनके इनोवेशन को देश भर में पहचान दिलाने में नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन और अनिल गुप्ता का बहुत बड़ा सहयोग मिला। सबसे पहले उन्हें सृष्टि से सम्मानित किया गया और फिर 2005 में उन्हें राष्ट्रीय सम्मान भी मिला। अनिल गुप्ता के सहायता से ही धनजीभाई ने अपने स्कूटर को और एडवांस मॉडिफिकेशन किए। जिसके बाद उन्हें दूसरे लोगों से भी ऑर्डर्स मिलने लगे।
आज हमारे देश में दिव्यांगों के लिए उनके हिसाब से सुविधाएं नहीं हैं। अगर वाहन उपलब्ध हैं भी तो सिर्फ एक तरह के जबकि हर किसी की समस्या और जरूरतें अलग है। धनजीभाई की अक्षमता दूसरे से बहुत अलग है और इसलिए उनका स्कूटर दूसरे इस्तेमाल नहीं कर सकते। जब भी कोई उन्हें स्कूटर के लिए सम्पर्क करता है तो सबसे पहले वो उनकी सारी जानकारी लेते है जिनके लिए स्कूटर बनाना है फिर उनके शरीर के मुताबिक स्कूटर बनाते है। जिस हिसाब से स्कूटर का डिजाइन होता है लागत खर्च भी उसी हिसाब से आता है। अब तक वो 12 स्पेशल स्कूटर बनाकर दिए है और अभी दो आर्डर भी मिले है।
धनजीभाई ने यह साबित कर दिया कि योग्यता किसी उम्र या शारीरिक क्षमता की मोहताज नहीं होती। जरूरत होती है तो बस एक मौके और दृढ़ निश्चय की। Logically धनजीभाई के अदम्य साहस को नमन करता है।