हमारे देश में बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या है। रोजगार की तलाश में कई लोग इर्द-गिर्द भटकते नज़र आते है तो वहीं कोई अपना घर छोड़ शहर की ओर पलायन करता है। किसी के पास लाखों की नौकरी है तो कोई दिहाड़ी मजदूरी करने को मजबुर है। कई ऐसे भी व्यक्ति है जो बहुत छोटे कार्य से शुरुआत कर आसमान छू रहे है। हमारे समाज में भिन्न-भिन्न तरह की कहानियां उभर कर सामने आती है, जिससे प्रेरणा लेकर लोग हर ऊंचाई को छूने की कोशिश करते है और कामयाब भी होते है। आज की हमारी कहानी एक ऐसे ही सफल व्यवसाई की है जो गांव की मिट्टी से शुरुआत कर कौरियों से करोड़पति बनने तक का सफर तय कर चुके है।
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां ज्यादातर लोग कृषि पर हीं निर्भर है। यहां कई लोग मिट्टी से सोना उपजाने का काम करते है। एक ऐसे ही व्यक्ति है सभापति शुक्ला (Sabhapati Shukla) जो गन्ने की खेती से शुरुआत कर करोड़ों का साम्राज्य स्थापित कर पूरे गांव के लिए तरक्की का रास्ता खोल दिए है।
राष्ट्रीय राजमार्ग 28 पर बस्ती से 55 किलो मीटर दूरी पर बसा गांव केसवापुर जहां लंबे समय से लोग अपनी बुनियादी ज़रूरतों के बिना ही अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। बाकी गावों के तरह ही केसवापुर में भी रोजगार की बहुत कमी थी, जिसके कारण वहां के लोगों को भी रोजगार के तलाश में शहर की ओर रुख मोड़ना पड़ता था। लेकिन वहीं सभापति ने जो कार्य किए उससे पूरे गांव वालों को राहत मिली है।
सभापति शुक्ला ( Sabhapati Shulka) द्वारा किए गए कार्य
2001 में सभापति शुक्ला अपनी निजी समस्या के कारण घर से अलग एक छोटी-सी झोपड़ी में अपना आशियाना बनाया। रोजगार के लिए बैंक से लोन लेकर गन्ने का क्रशर लगाया। शुरुआत में उन्हें कोई ज्यादा फायदा नहीं हुआ लेकिन 2003 तक उन्हें थोड़े फ़ायदे होने लगे। लेकिन फिर एक समय ऐसा आया जब उन्हें इस कारोबार में काफी नुकसान का सामना करना पड़ा। सभापति बहुत हताश हुए लेकिन हिम्मत नहीं हारे अपने दृढ़ निश्चय को बनाए रखे। वह पुनः गन्ने को अपने खेत में उपजाकर सिरका बेचने का काम शुरू किए। धीरे-धीरे लोगों को सिरका पसंद आने लगा और उसकी डिमांड बढ़ने लगी। अब सभापति को मुनाफा भी हुआ। सभापति के सिरके का सप्लाई उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पंजाब, बंगाल, दिल्ली, हरियाणा, मध्य प्रदेश समेत अन्य राज्य तक होने लगा। कुछ ही समय में उनका कारोबार करोड़ों रुपए का वार्षिक टनओवर करने लगा।
सभापति के अनुसार 200 लीटर सिरके के निर्माण में लगभग 2 हज़ार रूपए की लागत खर्च है और इसकी बिक्री से 2 हज़ार रूपए प्रति ड्रम की बचत होती है। सिरके का कारोबार संभालने के बाद वह अचार बनाने का भी काम शुरू किए और इस काम में गांव के बेरोजगार लोगों को भी जोड़े। कभी दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज गांव के मजदूरों को अब वहीं पर रोजगार मिल गया। सभी राहत की सांस लेने लगे। आज वहीं राष्ट्रीय मार्ग 28 पर उनकी फैक्ट्री भी चलती है। साथ ही थोड़े जमीन में वह खेती भी करते है। सभापति के यहां पशुपालन के कार्य के साथ एक डेयरी भी है।
सभापति की सफलता से हम यह सिख मिलती है कि हमारे आस-पास हर सुवधाइएं मौजूद है, जिन्हें कभी-कभी हम परख नहीं पाते है। अगर हौसला बुलंद और दृढ़ संकल्प के साथ सच्ची लगन हो तो हमारी सफलता में कोई भी कमी बाधा नहीं बन सकती है।