ऐसा सुनने को मिलता है कि कुछ व्यक्ति खेती द्वारा अपनी जीविका चलाते हैं, वहीं कुछ पशुपालन द्वारा अपनी जीविका चलाते हैं। जिस कार्य में लोगों को सफलता हासिल हो, लोग उसी क्षेत्र में आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं।
आज की इस लेख द्वारा आपको यह जानकारी मिलेगी कि किस तरह मत्स्य पालन और खेती दोनों एक साथ भी की जा सकती है?
बिहार (Bihar) राज्य के सहरसा (Saharsa) जिले के रमोती (Ramoti) ग्राम के सरोवर में नीचे मत्स्यपालन और ऊपर सब्जी का उत्पादन किया जा रहा है। बांस का मचान बनाकर फिर सब्जी उगाई जा रही है। ग्रो बैग में लकड़ी का बुरादा, वर्मी कम्पोस्ट, स्लिम स्वायल और नारियल की भूसी का प्रयोग कर सब्जियों का उत्पादन हो रहा है। सब्जियों को उगाने के लिए मिट्टी की आवश्यकता नहीं है बल्कि सब्जियां जैविक खाद द्वारा तैयार हो रही हैं। यहां पालक, करेला, धनिया, लाल साग और बैंगन आदि का उत्पादन किया जा रहा है।
बाढ़ में नहीं होगी परेशानी
इस तरह की प्रणाली का एक मात्र उद्देश्य यही है कि अगर अधिक बारिश के कारण बाढ़ की नौबत आ जाये, तब भी सब्जी का उत्पादन किया जा सके। जिस कारण आमदनी के साथ स्वयं के खाने के लिए भी सब्जियों का प्रबंधन भी हो सके।
अमृता चटर्जी और चिरंजीत चटर्जी जो की साउथ एशियन फॉर्म फ़ॉर एनवायरमेंट के डायरेक्टर हैं। उन्होंने बताया कि एग्रीकल्चर डिपार्टमेंट के तहत 20 से 25 की संख्या में सेलेक्ट हुए किसानों को यह सुविधा मिली है कि वह निःशुल्क मत्स्य और सब्जी उत्पादन कर सकें। इस पायलट परियोजना के तरह किसानों को आर्थिक, आजीविका और खाद्य की बहुत सुविधा मिल रही है।
सिंचाई के लिए सोलरचलित मोटर का उपयोग हो रहा है। सब्जियों को उनके आवश्यकतानुसार जल भी प्राप्त हो रहा है। कृषि सलाहकार सब्जियों का निरीक्षण कर ध्यान रखते हैं और जिला कृषि परामर्शी और पदाधिकारियों द्वारा इसकी मोनिटरिंग की जाती है। यह प्रणाली बाढ़ प्रभावित क्षेत्र के लिए वरदान साबित हो रही है। बहुत जल्द सुपौल में भी इस प्रणाली को प्रारंभ किए जाने की संभावना है।
जानिए इसका इतिहास
तलाब में मत्स्य पालन और सब्जी का उत्पादन हाइड्रोपोनिक विधि से पहले असम फिर बंगलादेश में प्रारंभ हुआ और अब यह बिहार में भी प्रारंभ है। इस प्रणाली में बांस के नाव का निर्माण कर और ड्रम लगाकर जिस तरह कार्य किया जाता है, उसमें लगभग 20 हज़ार की लागत लग जाती है, लेकिन किसानों के लिए इसकी निःशुल्क व्यवस्था कराई गई है। इस पद्धति से की जाने वाली खेती का नाम “नाव पर खेती” रखा गया है।