ज़मीन ऐसी बंजर और दर्रे इतने ऊंचे कि यहां तक पहुंचना ज़िंदगी का मक़सद तो हो सकता है, मगर मजबूरी नहीं क्योंकि यहां मौत ज़िंदगी पर भारी पड़ जाती है। ये माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) है दुनिया का सबसे ऊंचा, सबसे ठंडा और सबसे खतरनाक पहाड़। 8848 मीटर (29,029 फीट) की ऊंचाई के रिकॉर्ड के साथ जमा देने वाले तापमान और बर्फीले तूफान के कारण न जाने कितने पर्वतारोही यहां मौत की नींद सो गए। इन्हीं मौतों के कारण इसका एक हिस्सा “डेथ जोन” के नाम से भी फेमस है।
क्या है डेथ जोन ?
हर साल एवरेस्ट को फतह करने का मिशन बनाकर करीब तीन-साढे तीन सौ लोग आते हैं। कुछ कामयाब होते हैं और कुछ नाकामयाब होकर बर्फ में समा जाते हैं। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार एवरेस्ट पर चढ़ने के पहले प्रयास (1921) से लेकर अब तक 308 से ज्यादा पर्वतारोहियों की मौत हो चुकी है। बता दें कि सबसे ज्यादा मौतें 8000 मीटर (26,000 फीट) और उसके ऊपर से शुरू होती हैं। यही वजह है कि इस एरिया को “डेथ जोन” (Death zone) भी कहते हैं।
मरकर भी नहीं मरते ये पर्वतारोही
एवरेस्ट पर मरने वाले पर्वतारोहियों के शवों को वापस लाना आसान नहीं होता। इसलिए उन्हें वहीं छोड़ दिया जाता है।मगर ये मर कर भी मरते नहीं हैं। ये अपनी गलतियों से दूसरों को सबक देते हैं कि जिस रास्ते पर उन्हें मौत मिली उस पर जाना मना है।उनकी लाशें यहां आने वाले पर्वतारोहियों के लिए गूगल मैप का काम करती हैं। ये शव एवरेस्ट पर फतह करने के लिए भविष्य में आने वाले पर्वतारोहियों के लिए मील के पत्थर का काम करते हैं। इन्हीं शवों को देखकर नए पर्वतारोहियों को सही रास्ते का पता चलता है।
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सालों पुरानी लाशें आज भी वैसी ही
एवरेस्ट पर 98 सालों से पड़ी ये लाशें कभी सड़ती नहीं हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है कि एवरेस्ट का तापमान जो -16 डिग्री से – 40 डिग्री तक रहता है। इस तापमान में मरे हुए पर्वतारोहियों के शव खराब नहीं होते। एवरेस्ट के पर्वत पर इस वक्त 308 से ज्यादा माइल स्टोन यानी लाशें गड़ी हुई हैं।
मौतों के पीछे क्या है रहस्य
सबसे ऊंचे शिखर होने के साथ एवरेस्ट सबसे ख़तरनाक शिखरों में भी शुमार है। एक आंकड़े के मुताबिक सबसे ज़्यादा मौत यहां पैर फिसल कर गिरने की वजह से हुईं हैं और उसके बाद ठंड की वजह से दिमाग सुन्न हो जाने पर लोगों की सांसे थम गईं।
सरकार ने लाशों को वापस लाने की कवायद तक नहीं की
साल दर साल कई सरकारें आई और गई लेकिन किसी ने भी अब तक इन लाशों को उनके अपनों तक पहुंचाने की कोशिश भी नहीं की। इसके पीछे भी एक ठोस वजह है दरअसल इस बर्फीली चोटी से लाशों को नीचे ज़मीन पर लाना ना सिर्फ नामुमकिन सा है बल्कि अंदाज़े से ज़्यादा खर्चीला भी है। अगर एक भी लाश को नीचे लाने की कोशिश की जाएगी तो लाखों के खर्च के साथ उस व्यक्ति की भी जान को खतरा होगा जो ये काम करने जाएगा।
कपड़े और जूतों से होती है लाशों की पहचान
यहां लाशों को नाम से नहीं बल्कि उनके कपड़ों या बूट से जाना जाता है। एवरेस्ट के उत्तर पूर्वी रास्ते पर भारतीय पर्वतारोही शेवांग पलजोर (Tsewang Paljor) की लाश है जो “ग्रीन बूट” (Green Boots) के नाम से जानी जाती है। साल 1996 में एवरेस्ट पर चढ़ाई करते हुए बर्फीले तूफान में फंस कर उनकी मौत हो गई थी। आज तक शेवांग की लाश वहीं पड़ी है। ठीक इसी तरह कई और लाशें भी इन्हीं रास्तों पर मौजूद हैं।
इन बर्फीली पहाड़ियों पर उन लोगों की लाशें हैं जिन्होंने कुदरत को चैलेंज किया या यूं कह लें जिनके अंदर शिखर के टॉप तक पहुंचने की जिद थी। इनमें से कई तो ऐसे थे जो ऊपर तक पहुंच भी गए थे लेकिन वापसी में उनकी जान चली गई।