ऐ ताइर-ए-लाहूती उस रिज़्क़ से मौत अच्छी
जिस रिज़्क़ से आती हो परवाज़ में कोताही
ये लाइन एक माँ के ज़ज़्बे के लिए है,क्योंकि जो काम इस माँ ने इंजीनियर और अन्य व्यवसायिक कामो को करके नहीं किया वो काम एक माँ के ने करके दिखा दिया।माँ ऐसी चीज़ है जिसके बारे में ऐसा कहा जाता है कि बच्चे होने के बाद माँ अपनी पहचान भूल जाती है लेकिन यहाँ उल्टा है,इस केस में माँ होना ही उनके ऊंचे उड़ने(परवाज) का सबब बना।
बेकार ट्रेटा पैक का सफल उपयोग
क्या आप इस बात की कल्पना कर सकते हैं कि बेकार टेट्रा पैक से स्कूल के लिए बेंच का निर्माण किया जाए?लेकिन सच तो ये है कि ये अवधारणा अब कल्पना रही ही नहीं बल्कि सच हो चुकी है।जी हाँ बात 2012 की है जब ‘गो ग्रीन विद टेट्रा पैक’ के तहत ‘कार्टन ले आओ, क्लासरूम बनाओ’ नामक मुहिम की शुरुआत हुई थी। इस अभियान के तहत ही बेकार बचे और इस्तेमाल किए गए टेट्रा पैक को रीसायकल कर बेंच बनाया गया और न सिर्फ बनाया गया बल्कि ये बेंच सरकारी स्कूलों को दान में भी दे दिए गए।आज कहानी इसी नायाब सूत्र को हकीकत में बदलने वाली नायिका की।
दूरदर्शी और विजनरी मोनिशा नारके
जब हम अपने बच्चों की बीमारी से घबरा कर डॉक्टर के पास भागते हैं तो दूसरी ओर एक ऐसी माँ मोनिशा नारके भी हैं जिन्होंने अपनी बच्ची की लगातार हो रही खांसी से परेशान होकर दवा न देकर इसका स्थायी इलाज ढूंढा।
कैसे जागी मोनिशा
बात कोई दस साल पहले की है।मुंबई निवासी एक माँ और उद्यमी मोनिशा नारके का ध्यान अचानक पर्यावरण की ओर तब गया जब उन्होंने इसका प्रभाव अपने बच्चे पर देखना शुरू किया। इस बारे में बात करते हुए 45 वर्षीय मोनिशा बताती हैं कि उनकी बेटी को लगातार हो रही खांसी से वो अत्यंत परेशान रहती थी।उस वक्त उनकी बेटी की उम्र केवल चार साल थी।सबसे बड़ी चुनौती तो यह थी कि मोनिशा अपनी बेटी को कोई दवा नहीं देना चाहती थी।दवा देने की जगह पर वो कुछ ऐसा करना चाहती थी जिससे एक बार में ही समस्या का समाधान निकल जाए।
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कचरा रीसाइक्लिंग की प्रक्रिया शुरू
मोनिशा ने इस दिशा में मेहनत करना शुरू किया और सबसे पहला काम था उनके सामने की इस बारे में समस्त जानकारी को इकट्ठा किया जाए।उन्हें ये तो पता था कि वायु प्रदूषण और कई बार एलर्जी, खांसी का मुख्य कारण होता है। जानकारी इकठ्ठी करने के दौरान उन्होंने पाया कि इसके पीछे जो सबसे बड़ी वजह है, वह है, कचरा को फेंक देना और फिर उसे जलाना।इस दौरान उन्होंने यह भी महसूस किया कि इस समस्या को घर पर हल किया जा सकता है।उन्होंने बताया, “कचरे को जलाने से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है और हवा में पार्टिकुलेट मैटर के स्तर में वृद्धि होती है जो लोगों के स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा है। मोनिशा ने अपनी बातों को रखते हुए यह कहा कि मुझे इस बात का एहसास हुआ कि इसे निश्चित रूप से रोका जा सकता है और वो ये बात अच्छे से जानती थी कि बदलाव का पहला कदम घर से ही शुरू होता है।” कचरा रीसायकल कार्य अपने घर से शुरू और आखिर वो दिन भी आ ही गया जब मोनिशा ने घर पर जमा होने वाले कचरे को अलग करना शुरू किया। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने कुछ लोगों और संगठनों से संपर्क किया जो कचरे से खाद बनाने जैसी प्रक्रिया में शामिल थे।मोनिशा ने अपने द्वारा तैयार की गई पहली खाद से अपने खुद के घर में तरबूज को उगाया।अपने द्वारा तैयार किए गए खाद के इस परिणाम को देख मोनिशा अत्यंत उत्साहित थी।और तो और वो यहीं नही रुकी बल्कि इस चीज़ को घर-घर तक पहुंचाने की सोची।उन्होंने यह सोचा कि अगर इस छोटे कचरे को रीसायकल करने से इतना लाभ हो सकता है तो अगर और भी घरों तक अगर इस प्रक्रिया को पहुंचा दिया जाए तो कमाल हो सकता है।
अन्य माँ को भी जोड़ा और एक समूह का गठन किया
इस विषय को लेकर मोनिशा ने फिर अपनी बेटी के स्कूल में पढ़ाई कर रही अन्य विद्यार्थियों की माताओं से बात की। उन सभी की चिंता भी मोनिशा जैसी ही थी।इसलिए इस बात पर एकता जाहिर करते हुए इन सभी महिलाओं ने एक साथ मिलकर 2009 के मध्य में एक स्वयंसेवक समूह का गठन किया। समूह का नाम था आरयूआर यानी ‘आर यू रिड्यूसिंग, रियूज़िंग, रिसाइक्लिंग?’
इस संगठन के कार्य
आपको बता दें कि यह संगठन पिछले 10 सालों से काम कर रहा है और न केवल काम कर रहा है बल्कि इसने ज़बरदस्त प्रभाव भी डालना शुरू कर दिया है। मोनिशा ने बताया कि आरयूआर सालाना 750 टन से अधिक कचरा रीसायकल करता है और साल में 80 टन से ज़्यादा CO2 कम करता है।इस समस्या को लेकर उन्होंने अब तक लगभग अपनी वर्कशॉप के माध्यम से 30 लाख से अधिक लोगों को शिक्षित किया है, करीब 100 साइटों में अपने बायो-कंपोस्टर्स स्थापित किए हैं और 200 से ज़्यादा इकाइयां बेची है।
इस प्रकार लोंगो तक पहुंचाया गया
पर्यावरण प्रदूषण के खिलाफ किए जा रहे काम को लोगों तक पहुंचाने के लिए आरयूआर के सदस्यों ने कई प्रकार की विधियां अपनाई। उन्होंने नियमित रूप से खाद की जानकारी से संबंधित जानकारियों पर इको-बाज़ार, पर्यावरण-जागरूकता वर्कशॉप का आयोजन किया। सारे वर्कशॉप ऐसे थे जिस से मिली जानकारी और ट्रेनिंग को बड़े सहज तरीके से घर पर अपनाया जा सकता था। मोनिशा यह भी देखती थी कि शहर भर में कचरे का निपटारा कैसे किया जा रहा है और साथ ही लैंडफिल साइटों का निरीक्षण भी करती थी। ऐसी ही एक साइट मुम्बई में स्थित एशिया का सबसे बड़ा डंपिंग ग्राउंड – देवनार लैंडफिल है।उन्होंने इस बात का भी जिक्र किया कि कचरे के ढेर को देखते हुए, हमने महसूस किया कि बायोडिग्रेडेबल कचरे को रीसायकल करने के लिए सरल, नए, आकर्षक समाधान की आवश्यकता थी, ताकि कम कचरा डंप हो। ”
जागरूकता बदली उद्योग में
साल 2010 में, मोनिशा ने अपनी जागरूकता पहल को एक सामाजिक उद्यम में बदलने का फैसला किया।उन्होंने 2010 में आरयूआर ग्रीनलाइफ़ की स्थापना की। इसके तहत, उन्होंने अपशिष्ट प्रबंधन समाधान पर कार्य करना शुरू किया। इस आईडिया को देखते हुए मोनिशा के समूह के सदस्य खुशी-खुशी स्वयंसेवकों के रूप में कंपनी के साथ जुड़े रहे। मोनिशा की आरयूआर ग्रीनलाइफ़ उद्योग ऐसे काम करता है
इस उद्योग ने सबसे पहले मुंबई में हाउसिंग कम्युनिटी, स्कूल और ऑफिसों में जागरूकता और अपशिष्ट प्रबंधन वर्कशॉप का आयोजन शुरू किया।इसके साथ ही उन्होंने टेट्रा पैक इंडिया के साथ मिलकर ‘गो ग्रीन विद टेट्रा पैक’ लॉन्च किया। इस प्रमुख कार्यक्रम के तहत, आरयूआर को पूरे मुंबई में प्रमुख रिटेल स्टोरों जैसे सहकारी भंडार और रिलायंस फ्रेश में कलेक्शन सेंटर स्थापित करने थे।यहां कोई भी अपने द्वारा इस्तेमाल किए गए टेट्रा पैक के डिब्बे को जमा कर सकता है। इन डिब्बों को बाद में कंपोजिट शीट में रीसाइकल किया जाता है, जिससे फिर बाद में स्कूल डेस्क, गार्डन बेंच, पेन स्टैंड, कोस्टर, ट्रे जैसे उपयोगी प्रोडक्ट बनाए जाते हैं। एरोबिक बायो-कम्पोस्टर्स का किया आविष्कार इसके अलावा, उन्होंने एरोबिक बायो-कम्पोस्टर्स का आविष्कार किया। उन्होंने इसे डिज़ाइन किया और इन-हाउस विकसित किया। बाद में, इसे घरों, कम्युनिटी, ऑफिसों और अन्य संस्थानों में लगाया गया।
बचपन का ख्वाब
इतना बड़ा काम करने वाली मोनिशा नारके के विषय मे जानने की तो उत्सुकता तो होगी ही।तो यहाँ हम आपको बताना चाहते हैं कि बचपन से ही मोनिशा इंजीनियर बनना चाहती थी। उनके पिता और भाई दोनों ही इंजीनियर थे, जो अपनी कंपनी चला रहे थे।इस प्रक्रिया में उन्हें अक्सर अपने पिता के कारखाने का दौरा करने का मौका मिला।वहीं उस कारखाने में उन्होंने यह भी देखा कि विभिन्न प्रकार की मशीन कैसे संचालित होती हैं।
मोनिशा की शिक्षा-दीक्षा
अपने द्वारा देखे गए सपने को पूरा करने के उद्देश्य से 1992 में, मोनिशा ने मुंबई के वीरमाता जीजाबाई टेक्नोलॉजिकल इंस्टीट्यूट (वीजेटीआई) में दाखिला लिया और इलेक्ट्रॉनिक्स में इंजीनियरिंग में डिग्री हासिल की। 1996 में अपनी डिग्री प्राप्त करने के बाद, उन्होंने यूएस में स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय से इंडस्ट्रियल इंजीनियरिंग और इंजीनियरिंग मैनेजमेंट में मास्टर करने का फैसला किया।
नौकरी की शुरुआत
1998 में अपने कॅरियर की शुरुआत करते हुए उन्होंने कैलिफ़ोर्निया में एक आईटी कंपनी, सन माइक्रोसिस्टम के साथ काम करना शुरू किया। लगभग दो वर्ष बाद, वह मुंबई लौट आईं और क्लैन्ज़ाइड्स कॉन्टामिनेशन कंट्रोल के साथ जुड़ी जो कि उनके ही पिता द्वारा स्थापित कंपनी थी।उनके पिता ने इस कंपनी की स्थापना वर्ष 1979 में की थी।
उनके पिता द्वारा स्तहपित यह कंपनी फार्मास्युटिकल और बायोटेक सेक्टर में अन्य कंपनियों के लिए उपकरण तैयार करती है। इस कंपनी में मोनिशा टेक्नोलोजी डेवल्पमेंट मैनेजमेंट देखती थी।जब वह पूरी तरह से आरयूआर अर्थात अपनी खुद की कंपनी की गतिविधियों में शामिल हो गई, तब उन्होंने नौकरी छोड़ दी और आरयूआर के संचालन को और आगे तक ले जाने की दिशा में पूरे लगन और आत्मविश्वास के साथ काम करना शुरू किया। The logically,इनके हौसले,जुनून और मेहनत को सलाम करता है। इस उम्मीद के साथ कि आगे भी वो अपने लगन को इसी प्रकार से दिशा देती रहेंगी।