कोरोना काल में ऑक्सीजन की कमी के वजह से बहुत से लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी। जिससे लोग पर्यावरण के महत्व को समझ गए। सरहदी ज़िला जैसलमेर (Jaisalmer) में पर्यावरण संरक्षण लोक जीवन का अभिन्न हिस्सा है। यहां हजारों सालों से मैदान, घने कंटीले वृक्षों से आच्छादित क्षेत्र, बरसाती नदियों के कैचमेंट, खड़ीन खेतों के आसपास, मन्दिरों और वीर झुंझारों के देवस्थानों के चारों तरफ की जमीन को ओरण (Oran) के नाम से सुरक्षित छोड़ी गई है। यहां की परंपरा के अनुसार पेड़ों को काटना तथा उसकी टहनी उठाना पाप माना जाता है।
ओरण की परम्परा सालों पुरानी है
दरअसल ‘ओरण’ (Oran) शब्द संस्कृत भाषा के अरण्य शब्द से बना है। वैदिक काल में ऋग्वेद के दसवें मण्डल के अरण्यनी सूक्त में इसे अरण्यनी देवी से सम्बंधित देखा गया था, जहां वह बिना हल चलाये ही पूरे साल के लिए फलों और चारे की आपूर्ति सुनिश्चित करती थीं। अब यह परम्परा जंगलों को सुरक्षित रखने के रूप में बदल गई। पूरे दुनिया में यह रुन्ध, देवबनी, देवराय आदि के नामों से जाना जाता है।
देवी-देवताओं का प्रकोप
इस परम्परा को मानते हुए ओरण कई सालों से अपने आसपास के गांवों को मौसमी बेर, कैर, सांगरी, कुम्भट जैसे देसी फलों, शहद, गोंद, पत्तियों, छाल, जड़ी-बूटियों, चारा, घास आदि को सुनिश्चित करते आ रहे हैं। इससे यहां के लोग कई-कई वर्षों तक पड़ने वाले अकालों में भी पेड़ों की छाल और जंगली घासों के बीज खाकर अपना गुजारा कर लेते थे।
मान्यताओं के अनुसार इन ओरणों में पेड़ काटने और खेती करने पर प्रतिबंध रहा है। अगर कोई इस बात पर विश्वास नहीं करता है, तो ओरण से सम्बंधित देवी-देवताओं का प्रकोप किसी तरह की अनहोनी लाता है। जिससे बचने के लिए देवस्थानों पर चांदी के पेड़ चढ़ाने पड़ते हैं।
ओरणों में प्रवासी पक्षियों को देखा जा सकता है
ओरणों (Oran) के देवस्थानों की मान्यताओं को मानते हुए रियासतकाल में वन्यजीवों का शिकार पर प्रतिबंधित था, जिससे आज भी कुछ ओरणों में गोडावण, चिंकारा और प्रवासी पक्षियों को देखा जा सकता है।जैसलमेर ज़िले की अधिकांश बरसाती जल धाराएं और नदियां किसी न किसी ओरण से ही निकलकर रास्ते के विभिन्न गांवों के भू-जलस्तर, तालाबों और खडीनों में वर्षाजल को रखती है। यह प्राचीन पेड़ आंधियों और बरसातों में भी मिट्टी के अपरदन को रोकने का काम करता है।
यह भी पढ़ें :- इस अनोखे पेड़ को छूते ही हंसी आने लगती है, जानिए इसके पीछे की रोचक कहानी
प्राचीन ओरणों को नई पहचान दिलाई जा रही है
पिछले कुछ दिनों से इंटैक नई दिल्ली, जोधपुर और जैसलमेर अध्यायों द्वारा जैसलमेर में सामुदायिक पर्यावरण संरक्षण से जुड़ी संस्था ERDS फॉउंडेशन संस्था के साथ मिलकर जैसलमेर के प्राचीन ओरणों का सर्वे व पहचान का कार्य जैसलमेर के पर्यावरण प्रेमी पार्थ जगाणी व अमिताभ बालोच द्वारा करवाया जा रहा है। पहले चरण में 500 वर्षों से अधिक पुराने 35 वृक्ष चुने गए है, जिसमें से कुछ 700 से 800 वर्ष पुराने विशाल वृक्ष भी है। लोगो का मानना है कि जैसलमेर के प्राचीन ओरण (Oran) महत्वपूर्ण ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और पर्यावरण की धरोहर है।
कुछ मुख्य ओरण
इसे नेचर हेरिटेज के रूप में मान्यता दिलवाकर ईको पर्यटन क्षेत्र के रूप में विकसित किया जा सकता है। इंटेक जैसलमेर संयोजक ठाकुर विक्रम सिंह नाचना बताते हैं कि संस्था द्वारा जैसलमेर में ओरणों के सर्वे के प्रथम फेज का काम पूरा हो चुका है। भादरियाराय ओरण, देगराय औरण, आशापुरा ओरण देवीकोट,श्रीपाबूजी ओरण, मालणबाई ओरण, कालेडूंगरराय ओरण, पन्नोधराय ओरण, आईनाथजी ओरण, हड़बूजी ओरण, नागणेची ओरण, नागाणाराय ओरण, जियादेसर ओरण, सोहड़ाजी ओरण, डूंगरपुरजी औरण, बिकनसी जी ओरण, भोपों की ओरण, पाबूजी ओरण करियाप में मुख्य है।
मौजूद हैं जैसलमेर की स्थापना से पहले के ओरण
सोनू गांव में स्थित योद्धा बिकनसी जी भाटी के 13वीं सदी के ओरण में स्थित मन्दिर में उनके पालतू कुत्ते व घोड़े के पूजनीय स्मारक आज भी मौजूद हैं। साथ ही मोकला गांव में स्थित योद्धा डुंगरपीर जी का ओरण, जैसलमेर की स्थापना के कुछ समय बाद से यहां मौजूद है। जानरा गांव में मालण बाई जी का ओरण जैसलमेर की स्थापना के पहले से स्थित है।