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बांस और खस की खेती से बदल रही ग्रामीण महिलाओं की जिंदगी, शाहजहांपुर गांव की बदली दशा

गांव का नाम सुनते ही हमारे दिमाग वहां की मिट्टी, टेढ़ी मेढ़ी गलियां और गरीबी ही नज़र आती है। एक ऐसा ही गांव उत्तर प्रदेश में है, जिसका नाम ‘मथुरा बुजुर्ग’ है (Mathura Bujurg). यहां आज तक लोग गरीबी में ही जी रहे थे पर कुछ महिलाओं की कोशिश ने कई मुश्किलों का सामना करते हुए एक उम्मीद की किरण जगाई है।

महिलाओं ने बदली गांव की दशा

लखनऊ (Lucknow) से करीब 180 किलोमीटर दूर स्थित शाहजहांपुर के भवाल खेड़ा प्रखंड के हथुआ बुजुर्ग की रहने वाली करीब 20 महिलाओं ने एक स्वयं सहायक समूह बनाया है, जिसके जरिए उन्होंने अपने घर पर ही रह कर आत्मनिर्भरता का कार्य शुरू किया है। आपको बता दें कि इस समूह को कोरोना समूह भी कहते हैं।

क्या है इन महिलाओं का कार्य?

समूह सदस्य की यह महिलाएं बांस के तिनके और ख़स से चप्पल, टोकरियाँ, फूलदान आदि जैसे चीजे बनाती हैं। कोरोना महामारी में यह कार्य इनके लिए एक बढ़िया आय का स्रोत बना। यहां की रहने वाली 26 वर्षीय यास्मीन ने बताया कि ‘वह दिन में तीन घंटे चप्पल, टोपी, गुड़िया, झुमके आदि बनाने का करती है।’ उन्होंने बताया कि अगर वह इस कार्य को तीन घंटे करे तो एक दिन में करीब 150 सौ रूपये से लेकर 200 सौ रुपए तक की कमाई कर लेती है। उन्होंने बताया कि उनके पति आबिद हसन रिक्शा चलाते हैं और यह घर पर ही अपना कार्य करती हैं।

Making stuffs from bamboo

ग्रामीण इलाकों में किया work-from-home की शुरुआत

ग्रामीण इलाकों की 20 महिलाओं ने वर्क फ्रॉम होम (work-from-home) की शुरुआत किया है। इस सामूहिक काम में सामाजिक कार्यकर्ता साक्षी सिंह (Sakshi Singh) मदद के लिए आगे आई है, जिन्होंने ‘टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज’ से स्नातक किया है। इन्होंने अपने शाहजहांपुर स्थित गैर-लाभकारी, ग्रीन फ्यूचर कलेक्टिव के द्वारा एक परियोजना की शुरुआत की है।

ज्यादातर बांस के बनते हैं सामान

इस सामुहिक कार्य में महिलाएं अधिकतर बांस से सामग्री तैयार करती हैं, जिसे तैयार करना बहुत ही आसान होता है। इसकी खास बात यह है कि इसमें किसी बड़े स्किल की जानकारी होना भी जरूरी नहीं है। महिलाएं अगर समय निकाल कर दिन में ठीक से काम कर ले तो वह लगभग साडे ₹400 तक कमा लेती है। साक्षी का कहना है कि उसका गैर-लाभकारी समूह इस काममें कच्चा माल देता है और तैयार की गई सामग्री की मार्केटिंग करने में भी मदद करता है।

महिलाएं अब बिना अपना घर छोड़े ही आत्मनिर्भर बनने की राह पर है।

कोरोना समूह की एक सदस्य नूर बानो का कहना है कि उनके पति दिहाड़ी मजदूर का कार्य करते हैं। नूर भी अपने परिवार में आर्थिक सहायता देना चाहती थी। उन्होंने बताया कि ‘साक्षी दीदी’ हमारे जीवन में आई और हम इस काबिल बन सके कि अपने घर की आर्थिक जरूरत में अपना योगदान दे सकें।

क्या कहना है नूर का?

नूर 28 वर्ष की है और उनका कहना है कि जब उन्हें काम करने के लिए कुछ कच्चा माल मिला तब उन्होंने उनसे कुछ चीजें बनाने की शुरुआत किया। हालांकि उन्होंने इसके लिए खास कोई प्रशिक्षण हासिल नहीं किया है पर अपनी सोच और मेहनत से वह अपना पूरा कार्य करती हैं। उन्होंने बताया कि वह एक गरीब परिवार से हैं और कभी-कभी उनके पास चीजों को बनाने के लिए जरूरी सामग्री खरीदने के पैसे नहीं होते है।

हो सके बेहतर आमदनी

वैसे इस समूह में कार्य कर रही सभी महिलाएं गरीब परिवार से ही है इसलिए इनका कहना है कि वह दिन-रात बहुत मेहनत करती हैं, जिससे वह अपने उत्पादों को अच्छे तरीके से सेल (sale) कर पाए और बेहतर आमदनी भी हो पाए।

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अच्छी आय से बेहतर है परिवार

उन्होंने बताया कि बांस और खस से जितनी अच्छी चीजें बनाती है उनकी आय उतनी ही बेहतर होती है। अगर वे अच्छी तरह से बन पाए तो बिकने में बहुत परेशानी होती है।

खूब करती है मेहनत

समूह की सदस्य कुसुमलता (kusumlata) ने बताया कि वह कुछ नई चीजों को बनाने का प्रयास कर रहे हैं। एसएचजी बनाने के लिए गांव की महिलाओं को एक साथ लाने वाली जो 60 वर्षीय कुसुम को यह विश्वास है कि महिलाओं को उचित प्रशिक्षण दिया जाएगा तो उनके इस स्किल में भी सुधार आएंगे और कमाई भी अच्छी खासी होगी। कुसुम ने बताया कि महिलाएं इस कार्य को लेकर बहुत ही ज्यादा प्रेरित है क्योंकि उनके द्वारा बनाई गई कुछ चीजें पहले ही बिक चुकी हैं और उन्हें इनके पैसे भी मिल चुके हैं

जैतून निशा ने बताई कहानी

जैतून निशा (Jaitun Nisha) जो 40 वर्ष की है और उनके प्रति सरताज कंस्ट्रक्शन साइट पर कार्य करते हैं। उन्होंने बताया कि वह कड़ी मेहनत करने से बिल्कुल नहीं घबराती हैं। वह टोपी और जूते बनाती हैं और इस उत्पादन के आधार पर प्रत्येक दिन करीब 150 रुपए तक कमा लेते हैं।

इको फ्रेंडली तरीके से होता है कार्य

साक्षी (Sakshi) ने बताया कि हम अपने प्रोडक्ट्स के लिए ऐसी चीजों का इस्तेमाल करते हैं, जिससे पृथ्वी को कोई नुकसान न पहुंचे। आपको बता दें कि बांस सबसे मजबूत और पर्यावरण के लिए एक अनुकूल पौधों में से एक है। अन्य पौधों से अगर तुलना की जाए तो पर्यावरण में लगभग 35% ऑक्सीजन का योगदान बांस का ही होता है।

कभी कभी है घाटे का सौदा

साक्षी का कहना है कि शाहजहांपुर में महिलाओं द्वारा बनाए गए इस सामान का मूल्य ₹125 लगते हैं परंतु अभी उन्हें प्रचार प्रस्ताव के रूप में ₹100 भी बेचना पड़ता है।

बांस के सामानों की कीमत

बांस से बनाई गई तो टोकरियों की कीमत ₹250 और ₹650 के बीच रखा गया है। आपको बता दें कि चप्पल ₹350 है जो कि एक निर्धारित रेट है।

इन जगहों से आ रहे हैं बांस

अभी फिलहाल ग्रीन फ्यूचर पूर्वोत्तर असम से बांस मंगा रहा है और साथ ही बांस की खेती करनी भी शुरू कर दी है। बांस की खेती के लिए उन्होंने उत्तर प्रदेश के किसानों से बातचीत की है और उन्होंने बताया कि ख़स मलीहाबाद शाहजहांपुर से मंगवाया गया था।

मार्केट तक पहुंच रहे उत्पाद

इन उत्पादों को में मार्केट में लाने का प्रयास जारी है। उन्होंने बताया कि टियर वन शहरों में रेस्तरां, होटल और कॉर्पोरेट कंपनियों में उनका प्रचार-प्रसार और मार्कटिंग हो रहा है। वह कहती है कि उन्हें विश्वास है कि एक दिन उनका यह कार्य जरूर कामयाब होगा और आगे भी बढ़ेगा।

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