पुनर्विवाह को लेकर आज भी हमारा समाज दकियानूसी सोच लेकर चलता है। आसपास अगर दूसरी शादी की कोई खबर सुनने को मिलती है तो लोग एक न एक बार नाक जरूर सिकोड़ते है। इतना ही नहीं कई बार तो जिस महिला की दूसरी शादी होने वाली होती है उस पर ही कई सवाल खड़े कर दिए जाते हैं।
लेकिन एक समय ऐसा भी था जब पुनर्विवाह करना तो दूर सोचना भी गुनाह था। पति की मृत्यु होने के बाद पत्नी को पूरा जीवन उसकी विधवा के तौर पर ही जीना होता था। फिर ऐसा क्या हुआ कि इसमें एकाएक बदलाव आया। उसके लिए थोड़ा इतिहास में जाना होगा।
ऐसे हुआ विधवाओं के लिए बदलाव का नया सवेरा
करीब डेढ़ सदी पहले एक महत्वपूर्ण घटना ने 16 जुलाई के दिन को भारत के इतिहास में एक खास जगह दिला दी. 1856 में 16 जुलाई का दिन विधवाओं के लिए समाज में फिर से स्थापित होने का अवसर लेकर आया. इसी दिन भारत में विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता मिली.
अंग्रेज सरकार से इसे लागू करवाने में एक भारतीय की अहम भूमिका थी और वो थे समाजसेवी ईश्वरचंद विद्यासागर। उन्होंने विधवा विवाह को हिंदू समाज में स्थान दिलवाने का काम शुरू किया. इस सामाजिक सुधार के प्रति उनकी प्रबल इच्छाशक्ति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि खुद विद्यासागर ने अपने बेटे का विवाह भी एक विधवा से ही किया.
दो गुटों में बंटे समाज की दो धारणा
एक बार की घटना है जब विद्यासागर ने कालीमती नाम की विधवा की शादी अपने ही एक साथी श्रीचन्द्र विद्यारत्ना से करवाई। इस शादी का जहाँ एक तरफ़ बहुत से लोगों ने विरोध किया तो दूसरी तरफ़ ऐसे भी लोग थे, जिन्होंने इस शादी का पुरज़ोर समर्थन किया।
हिन्दू विधवा पुनर्विवाह एक्ट पास होने के बाद होने वाला यह पहला कानूनन विधवा विवाह था, पर यह पहली बार नहीं था जब किसी विधवा का पुनर्विवाह हुआ हो। इसके पहले भी ऐसी कोशिश की जा चुकी थी लेकिन तब समाज का रवैया काफी कड़क था।
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बदलाव के लिए किया कठिन परिश्रम
विद्यासागर को ग़रीब और आम विधवाओं की व्यथाओं ने प्रभावित किया और उन्होंने इस कुरीति के खिलाफ़ जंग छेड़ दी। इसके लिए उन्होंने संस्कृत कॉलेज के अपने दफ़्तर में न जाने कितने दिन-रात बिना सोये निकाले ताकि वे शास्त्रों में विधवा-विवाह के समर्थन में कुछ ढूंढ सके।आख़िरकार उन्हें ‘पराशर संहिता’ में वह तर्क मिला जो कहता था कि ‘विधवा-विवाह धर्मवैधानिक है’! इसी तर्क के आधार पर उन्होंने हिन्दू विधवा-पुनर्विवाह एक्ट की नींव रखी। 19 जुलाई 1856 को यह कानून पास हुआ और 7 दिसंबर 1856 को देश का पहला कानूनन और विधिवत विधवा-विवाह हुआ।
फिर भी विद्यासागर को मिला समर्थन
दुख की बात है कि उस समय इन सभी कार्यों के लिए विद्यासागर को समाज से ज़्यादातर विरोध और ताने ही मिले, लेकिन वे अपने आदर्शों पर अडिग रहे। उनके इन उसूलों को जहाँ समाज नकारता था, वहीं उसी समाज के कई तबके के लोग विद्यासागर को मसीहा मानते थे और उनका हौंसला बढ़ाते थे।
“बेचे थाको विद्यासागर चिरजीबी होए”
(जीते रहो विद्यासागर, चिरंजीवी हो! )
भले ही, इतिहास इस विधवा-पुनर्विवाह पर मौन रहा लेकिन यह शादी पूरे भारत की महिलाओं के उत्थान के लिए एक क्रांतिकारी कदम था। एक ऐसा बदलाव जो विधवाओं के लिए पुनर्जीवन से कम नहीं था।
हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि औरत के प्रति जितना सम्मान समाज दिखाएगा उसी से समाज की परिपक्वता का पता चलता है। अब अतीत के रुढि़वादी व दकियानुसी विचारों को छोडक़र अब नई सोच का सवेरा है।पुरुष और स्त्री एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी नहीं बल्कि पूरक हैं और दोनों का विकास एक-दूसरे पर निर्भर है। इस विकास में आने वाली बाधाओं को दूर करने में ही समाज की भलाई है।