01 जनवरी 2020.. नए साल की शुरुआत.. हमनें हर साल की तरह इस साल की भी शुरुआत मंदिर में भगवान के दर्शन से की.. मेरी दादी का कहना है, “नई चीजों की शुरुआत भगवान के दर्शन से ही करनी चाहिए.. ऐसा करने से पूरे साल अच्छा होता है..” और मैं अपनी दादी के बिल्कुल विपरीत.. हम दोनों कभी भी एक दूसरे के विरूद्ध नहीं जाते.. हम दोनों ही एक दूसरे के सोच की इज्ज़त करते.. पर ये एक दिन ऐसा होता है, जिस दिन दादी मेरा एक नहीं सुनती.. मुझे अपने साथ दर्शन कराने ज़रूर ले जाती.. और भगवान से मेरे लिए बुद्धि मांगती.. ख़ैर भगवान के दर्शन ने भी भारत में कोरोनावायरस को आने से नहीं बचाया.. जिसके फलस्वरूप मार्च से शुरू हुआ भारत में लॉक डाउन..
हमनें लॉक डाउन से दोस्ती कर ली। इस दौरान किसी ने खाना पकाना सीखा तो किसी ने किसी ने कला की दुनिया से ख़ुद की पहचान कराई। रंग, शब्द, गीत-ग़ज़लों और रसोई से दोस्ती कर ज़िंदगी में उस सफ़र पर चलने की कोशिश की जिसे हर रोज की भागम भाग में हमने कहीं पीछे छोड़ दिया था। वहीं किसी ने पेड़-पौधों के साथ समय बिताना शुरू कर दिया। इसके अलावा जो सबसे अच्छी चीज़ थी, वह यह कि हमने अपने और अपनों के साथ भरपूर समय बिताया। मुझे भी बहुत वक़्त के बाद अपनी दादी के साथ समय बिताने का मौक़ा मिला। फ़ुरसत से बैठ हम दोनों काफ़ी बातें की। कुछ उनके जमाने की, कुछ मेरे जमाने की। बहुत सी नई बातें जानने व सीखने को मिली। दादी की बातों से शायद एक नया नज़रिया उभर के सामने आया।
एक कहानी पढ़ते वक़्त जब मैंने दादी को बताया कि 14 वर्षीय वैदेही वेकारिया और राधिका लखानी ने अंतरिक्ष में एक ऐस्टरॉइड की खोज की है। दादी ने अटकते हुए पूछा कि ये एस्टेरॉयड.. क्या होते हैं??? हमारे जमाने में नहीं होते थें क्या??? मैंने भी कह दिया, “होते थे दादी.. उस वक़्त लड़कियों को एस्टेरॉयड के बारे में पढ़ने और ढूंढ़ने का अधिकार नहीं दिया जाता था।”
इस बात के जवाब में दादी ने मुझसे कहा, “तू जो हमेशा नारी सशक्तिकरण की बातें करती रहती है, न. जिसकी सबसे बड़ी उदाहरण तू झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को मानती है. फिर कहती है, पहले के जमाने में लड़कियों को उनके अधिकार नहीं दिए जाते थे. ऐसा नहीं है. रानी लक्ष्मीबाई, सरोजिनी नायडू, कमला नेहरू, सुचेता कृपलानी, सावित्री बाई फुले, मैडम भीकाजी कामा, इंदिरा गांधी ये इस जमाने की नारियां नहीं है. ये उसी जमाने की हैं, जिसे तू नारियों के लिए बुरा कहती है. और ये तो बस कुछ नाम हैं. ऐसी और भी कई महिलाएं हैं जिन्होंने ख़ुद को साबित किया है. क्योंकि वे अपनी ताक़त जानती थी. और तू जो आज के जमाने को नारियों के लिए बेहतर कहती है, आज भी कई महिलाएं ऐसी हैं जो अपने सपनों और अधिकारों से कोसों दूर हैं. तू अपने यहां काम करने वाली बाई रुपा को ही देख ले. द्रौपदी के चीरहरण पर होने वाला महाभारत का युद्ध अब संभव नहीं है. तेरे आज के जमाने में द्रौपदी को ही कुसुरवार ठहरा दिया जाता.
दादी सही तो कह रही थी। पुराने भारत में महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं थी, उन्हें उनके अधिकार दिए जाते थे, आज़ादी नहीं दी जाती थी तो आज के आधुनिक भारत में ऐसी कई महिलाएं है, जिनके अधिकारों का हनन कर दिया जाता है। अगर हम कहते हैं, स्थिति बदली है, कुछ महिलाओं ने ख़ुद को साबित किया है तो पुराने भारत भी ऐसी कई महिलाएं थीं जो बेख़ौफ़ हो कर अपनी ज़िंदगी जीती थी। अब समझ आया कि ये अंतर ज़माने का नहीं है, ये तब भी ‘सोच’ का था और अब ‘सोच’ का ही है। ये तब तक वैसे ही रहेगा जब तक महिलाएं ख़ुद अपने लिए आवाज़ नहीं उठाएंगी।