बात अगर कला और संस्कृति की हो तो भारत कैसे पीछे रह सकता है। यहां के कोने – कोने में बसती है कलाकृति और उससे जुड़े वें लोग जो आज भी प्राचीन कला को आगे लेकर बढ़ रहे हैं। संसाधन और आर्थिक कमी के कारण ये विलुप्त न हो जाएं इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारें भी सक्रिय हैं।
ऐसी ही एक अद्भुत कला का शानदार नमूना है आदिवासी गुड़िया। आज हम आपको बताते हैं कि आदिवासी गुड़िया क्या है और ये इतनी चर्चा में क्यों है।
आदिवासी गुड़िया को GI टैग मिलेगा
मध्यप्रदेश, झबुआ के आदिवासी (Tribals of MP) अपने हाथों से गुड़िया तैयार करते हैं जिसे आदिवासी गुड़िया के नाम से जाना जाता है। आदिवासियों की इस अद्भुत और बेहतरीन कला को दार्जिलिंग की चाय, गोवा की फेनी और महाराष्ट्र के अल्फांसो आम की तरह धरोहर वस्तुओं की सूची में जगह मिलने वाली है। दरअसल, आदिवासी गुड़िया को अब जीआई टैग (Geographical identification tag) मिलने वाला है।
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आदिवासियों के लिए सम्मान से कम नहीं
बार्बी डॉल के जमाने में आदिवासियों के हाथों से बनाई गई गुड़िया को वैश्विक स्तर पर महत्व मिल रहा है इससे साफ है कि देश की कला और संस्कृति को संवारने और बचाने का पूरा प्रयास किया जा रहा है। जीआई टैग से न केवल इस कला को नई पहचान मिलेगी।बल्कि यह उन तमाम आदिवासियों के लिए अत्यधिक सम्मान की बात है जो इस कला से खुद को जोड़कर देखते हैं।
इन कलाकृतियों को भी मिल चुका है सम्मान
मध्यप्रदेश की ये बेहद सुंदर दिखने वाली गुड़िया बनाने की कला भील और भिलाला आदिवासियों की विरासत है। बता दें कि झाबुआ, आलीराजपुर में मुख्य रूप से सात हस्तशिल्प कलाकृतियों को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त है। इसमें झाबुआ की आदिवासी गुड़िया, गलसन हार, लकड़ी की बैलगाड़ी, पंजा दरी, भावरा का पिथोरा आर्ट (पेंटिंग), जोबट का ब्लॉक प्रिंट और कट्ठीवाड़ा का बांस आर्ट शामिल हैं।
अब मिलेगी कला की सही कीमत
आदिवासी गुड़िया कपड़े और लोहे की पतली तारों से बनाई जाती है। जब तक इसे जीआई टैग नहीं मिला है तब तक यह गुड़िया आदिवासियों से सौ-सवा सौ में खरीदी जाती है। वहीं बाज़ार में जाने के बाद इसकी कीमत बढ़ कर 200 से 250 तक हो जाती है। जी आई टैग मिलने के बाद इस गुड़िया को इसके असली मालिक यानी आदिवासियों से सीधे तौर पर खरीदा जा सकेगा। जिससे इन्हें इस गुड़िया के उचित दाम मिल पाएंगे।