Wednesday, December 13, 2023

बिना स्कूल के चलती है यह पाठशाला, गांव के किसान से लेकर कारीगर हैं यहां के शिक्षक

हम अपनी जिंदगी में इतने मशगूल हो गए हैं की ज़िंदगी जीने का सही तरीका ही भूल गए हैं। किताबी ज्ञान और डिग्री में इतने रमे है कि बस हमारा सपना एक अच्छी नौकरी और एक बड़े शहर में घर तक ही सीमित हो गया है। कभी-कभी लगता है कि इन डिग्री, बड़ी नौकरी, बड़े शहर से दूर किसी गांव में प्रकृति के नजदीक रहते तो जीवन थोड़ा अलग रहता। आज की कहानी एक ऐसे व्यक्ति की है जिन्होंने शहर की आबोहवा से दूर एक गांव में जिंदगी जीने की कला सिखाने के लिए एक पाठशाला का निर्माण किया है। जहां पर पढ़ने और पढ़ाने के लिए किसी डिग्री की नहीं बल्कि अच्छे हुनर की जरूरत है।

महाराष्ट्र के कोंकण इलाके के धामापुर गांव के रहने वाले सचिन देसाई(Sachin Desai) ज्ञान केंद्र चलाते हैं जिसे यूनिवर्सिटी ऑफ लाइफ कहा जाता है। ज्ञान केंद्र “स्कूल्स विदाउट वाल्स” पर आधारित है। यहां पर लोगों को जिंदगी जीना सिखाया जाता है, प्रकृति के साथ कैसे तालमेल बनाया जा सकता है।
सचिन देसाई मुम्बई में पले-बढ़े हैं। पढ़ाई पूरी करने की बाद इन्होंने होटल इंडस्ट्री में अच्छी खासी नौकरी की। उसके बाद इन्होंने अपने दोस्त के साथ मिलकर एक खुद का कारोबार शुरू किया। एक कंप्यूटर कंपनी की शुरुआत की जिसके तहत उन्हें मध्य प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में काम करने का अवसर प्राप्त हुआ।
सचिन पढ़ाई में कुछ खास नहीं थे वह हमेशा से अपने स्कूल में बैकबेंचर्स ही रहे उन्हें आज की शिक्षा प्रणाली में हमेशा कोई ना कोई दोष नजर आया। वह इससे खुश नहीं थे। वह हमेशा अपनी पत्नी से इस बात पर चर्चा किया करते थे। जब उनकी बेटी की उम्र पढ़ने के लायक हुई तब सचिन को इस बात का डर था कि उनकी बेटी को भी इसी शिक्षा प्रणाली में पढ़ना होगा। वह इसके बाद परिवार के साथ विदेश जाकर बसने का भी सोचने लगे। इसी दरमियान उनके दादाजी ने उन्हें सुझाव दिया कि उन्हें विज्ञान आश्रम के डॉक्टर श्रीनाथ कालबाग( Dr. Sreenath kalbaag) से जाकर मिलना चाहिए।

श्रीनाथ कालबाग से हुई मुलाकात सचिन के जीवन का टर्निंग पॉइंट साबित हुई।

अपने दादाजी की सलाह पर सचिन श्रीनाथ कालबाग से मिलने उनके गांव गए। विज्ञान आश्रम एक ऐसे गांव में स्थित था जो सारी सुविधाओं से कटा हुआ था। इस गांव में पीने का पानी तक नहीं था। सचिन को यह सोचकर आश्चर्य हो रहा था कि कैसे एक पढ़ा-लिखा इंसान मेट्रो सिटी के लाइफ स्टाइल को छोड़कर एक ऐसे गांव में बस सकता है।
सचिन देसाई ने अपने मन में उपजे इस सवाल को डॉक्टर श्रीनाथ कालबाग की पत्नी मीरा कालबाग से पूछा। तब मीरा कालबाग ने उन्हें कहा कि यह समस्याएं सोने की खदान जैसे हैं। अगर जिंदगी में परेशानियों से भागोगे तो फिर कुछ सीख नहीं सकते। जिंदगी का मजा परेशानियों का हल निकालने में है, उन से भागने में नहीं।
फिर क्या था, इस जवाब ने सचिन के मन में एक गहरा प्रभाव डाला और सचिन ने अपने पूरे परिवार के साथ अपने पैतृक गांव धामापुर में बसने का निश्चय किया।

इस ज्ञान केंद्र की शुरुआत कैसे हुई

सचिन देसाई अपनी पत्नी और अपनी बेटी के साथ वापस अपने गांव आकर बस गए और चार बच्चों के साथ अपनी उन्होंने अपने ज्ञान केंद्र की शुरुआत की। उन्होंने स्कूल विदाउट गोल्फ के कंसेप्ट को बहुत पढ़ा और समझा। उसके बाद शुरुआती कुछ समय उन्होंने बच्चों के साथ कुछ काम किया। फिर धीरे-धीरे उन्होंने गांव के लोगों को अपने इस संस्था के साथ जोड़ा इस पाठशाला में पढ़ने के लिए लोगों को किसी डिग्री की जरूरत नहीं बस एक हुनर की जरूरत होती है जैसे एक कुम्हार बच्चों को मिट्टी से जुड़ी कला सिखाता है, किसान कृषि से जुड़ी क्लास कक्षाएं लेता है, बढ़ई बच्चों को लकड़ी के सामान बनाने की कला सिखाता है।

बच्चों को स्कूल सिखाने के साथ-साथ सर्टिफिकेट भी दिया जाता है

सचिन देसाई बताते हैं कि वह बच्चों को हुनर तो सीखा रहे थे फिर उन्हें महसूस हुआ कि इन बच्चों को आगे तरक्की करने के लिए सर्टिफिकेट की भी जरूरत पड़ेगी। तब इन्होंने बच्चों को डॉक्टर श्रीनाथ कालबाग के द्वारा डिजाइन किए हुए कोर्स नेशनल ओपन स्कूल के डिप्लोमा इन बेसिक रूरल टेक्नोलॉजी से जोड़ा।

देश-विदेश से लोग सीखने आते हैं

सचिन बताते हैं कि उन्होंने इसकी शुरुआत जब की थी तो उसमें मात्र चार बच्चे थे। आज अनगिनत बच्चे हैं। उन्होंने बच्चों की कभी काउंटिंग नहीं कि। आज उनके पास देश-विदेश से लोग आकर कुछ सीख कर जाते हैं। कुछ एक हफ्ते रहते हैं तो कुछ दो साल तक रहते हैं और यहां से जिंदगी जीने की असली कला सीख कर जाते हैं।
अभी इस लर्निंग संस्था में 60-70 विदेशी कई तरह की कला सीख रहे हैं।

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बच्चों को इसमें कैसे पढ़ाया जाता है

सचिन बताते हैं कि यहां पर बच्चों को उन सारी चीजों का ज्ञान दिया जाता है जो उन्हें रोजमर्रा की जिंदगी में काम आते हैं। उन्हें यहा कोई किताबी ज्ञान नहीं दिया जाता बल्कि बेसिक नॉलेज दिया जाता है, हुनर सिखाया जाता है। यहां पर रहकर छात्र 12 तरह की हुनर सीखते है जैसे कृषि से जुड़े हुए, आर्किटेक्ट से जुड़े हुए, पर्यावरण से जुड़े हुए हुनर सिखाया जाता है।
वह उदाहरण देते हैं कि समुद्र में जो सीप मिलता है उसकी शैल का चूना खाने में इस्तेमाल होता है और साथ ही बहुत जगह आर्किटेक्चर में भी काम आता है। मालवन में जो शिवाजी महाराज का किला है उसे बनाने में इस चूने का उपयोग किया गया था। आज शायद ही कहीं कोंकण इलाके को छोड़कर कहीं और इस चूने को बनाने की तकनीक सिखाई जाती होगी।
इस संस्था की खासियत यह है कि यहां पढ़ाने के लिए किसी बड़े कॉलेज या हाई स्कूल से शिक्षक नहीं आते हैं, यहां वही इंसान पढ़ाता है जिसे कोई ना कोई कला आती हो जैसे कोई किसान, कुम्हार आदि।

इस सफर में परेशानियां भी आई

सचिन का यह सफर आसान नहीं था शुरुआत तो अच्छी हुई पर जैसे जैसे बच्चे यहां से सीख कर जाने लगे, वह सभी फिर से बड़े बड़े शहरों में जाकर उसी सिस्टम का हिस्सा बनने लगे। तब सचिन यह निश्चय किया कि इन बच्चों को अब सिर्फ हुनर ही नहीं सिखाना है बल्कि उन्हें सस्टेनेबल जिंदगी जीने का सलीका सिखाना है और इस तरह से यह ज्ञान केंद्र “यूनिवर्सिटी ऑफ लाइफ” में बदल गया।

सस्टेनेबल जीवन जीते है यहा सभी

सचिन देसाई ने अपने पैतृक घर को ही ज्ञान केंद्र में बदला है। यहां पर वह पूरी तरह से प्रकृति के साथ तालमेल बैठाने की कोशिश करते हैं। यहां पर वह वर्षाजल संरक्षण करते हैं, सौर ऊर्जा का भरपूर इस्तेमाल करते हैं, बायोगैस का इस्तेमाल करते हैं। यहां पर रह रहे सभी छात्रों का जीवन लगभग ऐसा ही हैं। वह सभी अपने-अपने काम खुद से करते हैं। सभी की जिम्मेदारी बांटी हुई है, कोई किचन संभालता है तो कोई कुछ।

इस लर्निंग सेन्टर पर कोई फीस नही लगती

सचिन बताते हैं कि यहां पर छात्रों से सिखाने के लिए कोई फीस नहीं ली जाती हैं। यहां पर किसी काम में बच्चों का योगदान लेकर ही उन्हें सिखाया जाता है। इसके अलावा कोई फीस नहीं ली जाती हैं।
यहां पर बहुत सारे शिक्षण संस्थान से बच्चे वर्कशॉप के लिए आते हैं बस उन्हीं से वर्कशॉप की फीस ली जाती हैं। यह फीस वर्कशॉप की अवधि के हिसाब से तय की जाती है।ग् इसके अलावा और कोई भी छात्रा वहां जाकर रह सकता और सीख सकता है।

छात्रों के साथ मिलकर इनोवेशन भी करते हैं

सचिन इन सबके अलावा छात्रों के साथ मिलकर कई इनोवेशन भी करते हैं जैसे बायोमास कुकर, सोलर डिहाइड्रेटर या फिर प्रकृति से जुड़े खाद्य पदार्थ बनाना आदि। यहां करबंद का अचार, जैम जैसे खाद्य पदार्थ भी बनाते हैं और इनकी मार्केटिंग के लिए इन्होंने जॉइन लायबिलिटी ग्रुप बनाया है।
इसके अलावा इन्होंने विज्ञान आश्रम के साथ मिलकर सिंधुदुर्ग के 10 स्कूलों में विलेज पॉलिटेक्निक नाम का एक कोर्स की शुरुआत की है। जिसके तहत बच्चे अपनी पढ़ाई के साथ-साथ गांव में जाकर हुनर सीखते हैं।

इनकी बेटी ने कभी फॉर्मल स्कूलिंग नही की

सचिन देसाई बताते हैं कि उनकी बेटी मृणालिनी जो अभी 16 साल की है उसकी कभी फॉर्मल स्कूलिंग नहीं हुई है। उनकी बेटी ने यहीं से बहुत सारे स्किल्स सीखे हैं जैसे कृषि, आर्किटेक्ट, पर्यावरण संबंधित क्षेत्रों में उसे दक्षता प्राप्त है। उसे क्लासिकल संगीत में बहुत रुचि है। मात्र 16 वर्ष की आयु में ही वह तबला वादन में ओ लेवल की परीक्षा पास कर चुकी है।

सचिन कहते हैं कि अगर कोई भी उनके इस ज्ञान केंद्र में आकर कुछ सीखना चाहता है तो वह उन्हें ईमेल के जरिए बता सकता है। यहां पर कोई भी एक हफ्ते से लेकर एक साल तक की इंटर्नशिप कर सकता हैं।

अगर आप भी सचिन देसाई(Sachin Desai) के यूनिवर्सिटी ऑफ लाइफ से जिंदगी जीने का हुनर सीखना चाहते हैं तो 9405632848 पर कॉल कर सकते है या फिर 163dhamapur@gmail.com पर ईमेल कर सकते हैं।