जैसे अंधेरे का अनुभव करने से प्रकाश का महत्व बेहतर समझ आता है, वैसे ही शिक्षा का महत्व इसके अभाव में ही समझा जा सकता है। एक अनपढ़ व्यक्ति जो कभी स्कूल नहीं गया हो… जिसके लिए काला अक्षर भैंस के बराबर हो… जिसके लिए निरक्षरता अभिशाप के समान हो… उससे ज्यादा शिक्षा का महत्व शायद ही कोई समझेगा। कहा जाए कि एक अनपढ़ व्यक्ति भी शिक्षा के क्षेत्र में अपना योगदान दे रहा है तो यकीन करना थोड़ा मुश्किल होगा, लेकिन यह सच है कि एक अनपढ़ औरत ने अपने अथक प्रयास से हज़ारों बच्चों को शिक्षित किया है, जिसके लिए वह पद्मश्री से सम्मानित हो चुकी हैं।
उड़ीसा (Odisha) के एक छोटे से गांव की रहने वाली तुलसी मुंडा (Tulasi Munda) को प्यार और सम्मान से उनके गांव के लोग दीदी बुलाते हैं। 73 वर्षीय तुलसी ख़ुद एक अनपढ़ औरत हैं। इसके बावजूद 20 हज़ार से भी अधिक बच्चों को शिक्षित कर चुकी हैं। आज तुलसी अपने गांव वालों के लिए एक मसीहा बन चुकी हैं। तुलसी ने यह साबित कर दिया है कि शिक्षा केवल किताबों की मोहताज नहीं है। आदिवासी इलाके में शिक्षा का अलख जगाने वाली तुलसी मुंडा को साल 2001 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है। इतना ही नहीं इन्हें समाज कल्याण के उत्कृष्ट कार्य करने के लिए ‘उड़ीसा लिविंग लीजेंड’ अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया है।
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कैसे हुईं बच्चों को शिक्षित करने की शुरुआत
तुलसी मुंडा (Tulasi Munda) कभी उड़ीसा (Odisha) के सेरेंदा गांव में खदानों में काम करती थी। उनके साथ बहुत सारे बच्चें भी खदान में काम करते थे। तभी उनके जीवन एक ऐसा मोड़ आया कि तुलसी ने 1963 में आदिवासी समाज के बच्चें को शिक्षित करने का लक्ष्य बना लिया। 1963 में एक समय उड़ीसा में भूदान आंदोलन पदयात्रा निकला था उस यात्रा में विनोबा भावे भी आए थे। उस दौरान तुलसी की मुलाकात उनसे हुईं। विनोबा भावे के विचारों से तुलसी बहुत प्रभावित हुईं और उनके विचारों को अपने जीवन में पालन करने का संकल्प लिया। आगे 1964 में तुलसी ने अपने पैतृक गांव सेरेंदा में बच्चों को शिक्षित करने का कार्य प्रारंभ किया।
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तुलसी मुंडा के जीवन में बहुत परेशानियां थी। अपने गुजारे के लिए वह मजदूरी का काम करती थी। एक अशिक्षित महिला का आर्थिक दृष्टि से कमजोर होने के बावजूद भी इतना बड़ा निर्णय लेना सबके लिए प्रेरणादायक है। मजदूर वर्ग के बच्चे जो खुद बाल मजदूरी के शिकार हो गए हो, उन्हें काम से बाहर लाना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। धीरे-धीरे उन्हें काम से बाहर लाने का प्रयास करना शुरू की… आज़ादी के समय वाले क्रांतिकारियों और विद्वानों की कहानियां गांव वालों को सुनाई… काफी समय के बाद सफलता भी हासिल हुईं। तुलसी ख़ुद पढ़ी लिखी नही थी और ना ही पढ़ाई के खूबियों के बाड़े में जानती थी। अपने शैक्षणिक मिशन के लिए बहुत मुश्किल से उन्होंने अपनी प्रेरणा से लोगों को तैयार किया।
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रात्रि पाठशाला से की शुरुआत
तुलसी मुंडा ने अपने गांव में सबसे पहले रात के समय में चलने वाले स्कूल की शुरुआत की। धीरे-धीरे लोगों का उन पर भरोसा बढ़ने लगा। जब अपने बच्चे को पढ़ाने के लिए लोग आगे आने लगे तब तुलसी ने दिन में भी स्कूल चलाना प्रारंभ किया। आगे पैसे की समस्या खड़ी होने लगी जिसके लिए उन्होंने समय निकालकर सब्ज़ियां बेचनी शुरू की। आगे गांव वाले भी उनकी मदद करने के लिए कदम बढ़ाए।
“आदिवासी विकास समिति” विद्यालय की स्थापना
तुलसी मुंडा ने अपना पहला स्कूल गांव में एक महुवा के पेड़ के नीचे शुरू किया था। जब स्कूल में बच्चों की संख्या बढ़ने लगी तब एक व्यवस्थित स्कूल बनाने की योजना बनाईं, जिसके लिए ज्यादा पैसे की जरूरत थी, जो उनके पास नहीं थे। उसके लिए वे गांव वालों के साथ मिलकर खुद पत्थर काटकर स्कूल बनने का काम प्रारंभ की। सबके साथ और मेहनत रंग लाई। मात्र 6 महीने में ही दो मंजिला स्कूल बनकर तैयार हो गया। उस स्कूल का नाम “आदिवासी विकास समिति विद्यालय” रखा गया। वर्तमान में उस स्कूल में 7 शिक्षक, 354 विद्यार्थी, 81 बच्चों के लिए हॉस्टल भी है।
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हम सब इस बात से भाली भांति परिचित है कि अन्य देशों के अपेक्षा हमारे देश में शिक्षा स्तर काफी कम है। जिस शिक्षा पर हम सबका अधिकार है, वहीं आज भी ऐसे कई बच्चे है जो प्राथमिक शिक्षा से भी वंचित रह जाते है। तुलसी मुंडा की तरह यदि और भी लोग काम करें तो कुछ भी मुश्किल नहीं है। तुलसी अब रिटायर हो चुकी है पर उनका साहस और संकल्प सबके लिए प्रेरणादायक है।
The Logically तुलसी मुंडा द्वारा शैक्षणिक कार्य के लिए उठाए गए कदम की सराहना करते हुए कोटि-कोटि नमन करता है। तुलसी ने यह साबित किया है कि महिलाएं हर कार्य में अक्षम नहीं पूर्ण सक्षम है।
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